कुहरे के बाद सूरज

डॉ मदन गोपाल लढ़ा

लेखक सुप्रसिद्ध कथाकार है।

पता: 144 लढ़ा निवास, महाजन, बीकानेर

मनुष्य को अपने कर्मों का फल स्वयं भोगना पड़ता है परंतु उसके द्वारा किए गए कर्मों का प्रभाव संपूर्ण संसार पर पड़ता है। अतः मनुष्य के लिए उचित है कि वह अपने लिए कुछ भी ना करें। अपना कुछ भी ना माने तथा अपने लिए कुछ भी ना चाहे। गीता भवन के ठीक सामने गंगा घाट पर लगे शामियाने में कथावाचक महाराज पुण्योदय स्वामी ने साधक संजीवनी से स्वामी रामसुखदास जी को उद्धरित करते हुए कहा। इस उद्धरण के पश्चात स्वामी जी ने कथा को आगे बढ़ाया मगर अनिकेत का मन वहीं अटक गया। यह कैसे संभव है कि मनुष्य अपने लिए कुछ न चाहे व कुछ न करें। जीयाजूण में ऐसा कभी होता है भला। यह तो मानव स्वभाव के विपरीत बात हुई ना। आदमजात तो सबसे पहले खुद की चिंता करती है। अनिकेत ने सोचा कि स्थितप्रज्ञ कर्मयोगी गीता में वर्णित एक काल्पनिक व्यक्तित्व है जो धरती पर मिलना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है। वह गीता बांच चुका है, एक नहीं दो बार। पिछली बार गर्मियों में उसने पहला पाठ किया था। मसूरी के सेमिनार में डबास सर ने मन की बेचैनी दूर करने के लिए गीता के अध्ययन की सलाह दी थी अनिकेत को। तीन महीने बाद उसने फोन पर को डबास सर को गीता पाठ पूर्ण होने की सूचना दी थी।

‘केवल बाँचा भर है अथवा भाषा कुछ समझ में भी आया है’ डबास सर ने अपने चिर परिचित अंदाज में पूछा था।

‘समझ में तो नहीं आया। बहुत टिपिकल है यह। सब गड़बड़ हो जाता है।’

जैसे बिजाई से पहले जमीन को सूड़ करके तैयार करना पड़ता है वैसे ही गीता पढ़ने से पहले मन को उर्वर बनाना पड़ता है, तब जाकर कुछ समझ बनती है।

समझ बनाने के लिए ‘साधक संजीवनी’ पुस्तक सजेस्ट की थी डबास सर ने। स्वामी रामसुखदास जी ने बहुत परिश्रम से गीता की टीका लिखी है। स्वामी जी की प्रखर मेधा ने एक.एक शब्द को खोल कर रख दिया है।

सर की प्रेरणा से ही ‘साधक संजीवनी’ शुरू की। जिंदगी की भागमभाग से ध्यान एकाग्र होने में दिक्कत आ रही थी इसलिए जब तब एक.दो सप्ताह की छुट्टियां निकालकर गंगा घाट जा पहुँचता। इस बार का टूर दस दिनों का था जिसमें उसे स्वाध्याय के साथ सुप्रसिद्ध कथावाचक पुण्योदय स्वामी की कथा सुनने का सौभाग्य संयोगवश प्राप्त हो गया। सतत अध्ययन से अब अनिकेत को भावार्थ ग्रहण होने लगा था मगर उसके भीतर का दुनियादार हर वक्त तीखे सवालों के साथ तैयार रहता। वह गीता के सूत्रों को व्यवहार की कसौटी पर कसकर देखता और उसे उन सूत्रों की प्रासंगिकता पर संदेह होने लगता।

क्या ये सब बातें किताबों के लिए ही है जिनको जीवन में लागू नहीं किया जा सकता। उसका अंतर्मन सवाल उठाता। सवालों की चुभन उसे बेचैन कर देती तब वह डबास सर को फोन मिला लेता।

सर आप तो बीसों साल से गीता पढ़.समझ रहे हैं। क्या आपको कामना से मुक्त होना में कामयाबी मिली है।

मेरी छोड़ो, तुम्हें यह सवाल खुद से हर रोज पूछना है।

मगर कामना से मुक्ति क्यों जरूरी है।

गीता कल्याण के लिए कामना से मुक्ति जरूरी मानती है।

मगर कल्याण की यह धारणा मुझे उलझन में डाल देती है। इस दृश्यमान जगत को छोड़कर अदृश्यमान जगत की तरफ भागना कहां तक समझदारी कही जाएगी।

दृश्यमान जगत से ही संतुष्ट होते तो यह सब पढ़ने.समझने की जरूरत क्यों पड़ती।

डबास सर ने कुछ अन्य बातें भी कहीं मगर अनिकेत अपनी आदत के मुताबिक इसी बात का सिरा पकड़कर विचार के भंवर में उतर गया। 

सच ही तो कहते हैं डबास सर। सुविधाजनक फ्लैट, कमाऊ लाइफ पार्टनर, लग्जरी गाड़ी, स्मार्ट संतान….. बेहतरीन जिंदगी के लिए इससे ज्यादा क्या चाहिए भला। इतना सब कुछ होते हुए भी मेंटल पीस गायब था जिंदगी से। सुबह से शाम तक नौकरी का तनाव और घर पर बेवजह की खींचतान। लोग कहते हैं कि तंगी में कलह होती है मगर यहां तो सारे सुख.साधनों के बावजूद नोकझोंक चलती रहती। कभी कम कभी ज्यादा। जिस दिन ज्यादा होती उस दिन लंच या डिनर कुर्बान हो जाता। कभी तू.तू.मैं.मैं तो कभी कई दिनों का अनबोला। वैसे तो हर दिन कोई न कोई अलग वजह होती मगर असल में मूल वजह थी दोनों का ‘ईगो’। जिस वर्तिका के साथ उसने दुनिया से लड़ कर रिश्ता जोड़ा था उसमें लाख कमियां नजर आने लगी। सोशल नेटवर्क पर उसकी अति सक्रियता भी कई बार विवाद का कारण बन चुकी थी। मन की अशांति पर काबू पाने के लिए ही तो उसने डबास सर से मार्गदर्शन मांगा था।

ज्ञान की घूंटी कब कैसे असर करेगी यह तो ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता अलबत्ता गंगा घाट की यायावरी जरूर मन को सुकून देने वाली थी। जोड़ बाकी वाली जिंदगी से दूर, प्रकृति की गोद में कुछ दिनों के लिए ही सही, तनाव काफूर हो जाता। आम दिनों में वह चाहकर भी ऑन स्क्रीन टाइम को कम नहीं कर पाया मगर यहाँ आकर तो मोबाइल याद ही नहीं आता। 

ढलती शाम के समय नदी का रूप अलग ही होता। सूर्यनारायण के साथ अस्ताचल जाने से लेकर तारिकाओं के उदय होने तक नदी कितने रंग बदलती है। घाट पर बैठा अनिकेत नदी की भव्यता में इस कदर खो गया कि उसे समय का बोध ही नहीं रहा। उसका ध्यान तो तब भंग हुआ जब गंगा मंदिर के माइक से घोषणा हुई, सिटी हॉस्पिटल में एक व्यक्ति बहुत गंभीर बीमार है। उसे ए पॉजिटिव खून की दरकार है। अनिकेत का ब्लड ग्रुप ए पॉजिटिव ही था। वह तत्काल भवन के ऑफिस पहुंचा व ब्लड डोनेशन की सहमति जताई। चंद मिनटों में भवन के सेवादार उसे सिटी हॉस्पिटल के ब्लड बैंक में ले गए।

पिछली बार ब्लड कब दिया था। कागजी औपचारिकताएँ पूरी करते हुए ब्लड बैंक के स्टाफ ने पूछा।

कभी नहीं। मैं पहली बार ब्लड दे रहा हूँ।

एकबारगी तो उनके हाथों में मोटी सुई को देखकर डर लगा मगर जब रक्त निकलना शुरू हुआ उसे गीता के ‘योगः कर्मसु कौशलं’ सूत्र का स्मरण हो आया। गीता व्याख्या की नहीं अनुभव की विषयवस्तु है। डबास सर का कथन उसे सोलह आने सही प्रतीत हो रहा था दी।

अस्पताल से वापस लौटने पर उसका कमरे में जाने का मन नहीं हुआ। वह भवन के प्रांगण में लगे पत्थर की बैंच पर बैठ गया। उसे एकांत में आसमान को देखना पसंद था। अचानक भवन के एक कर्मचारी की आवाज ने उसका ध्यान खींचा, साहब आपका फोन आया है ऑफिस के नंबर पर।

मेरा फोन ऑफिस के नंबरों पर। वह तेज गति से दफ्तर तक पहुंचा। उसने चौंगा उठाया।

हेलो, क्या बात है अनिकेत। आज सुबह से तुम्हारा फोन बंद क्यों है। वर्तिका की आवाज में चिंता झलक रही थी।

ओह मैं तो भूल ही गया था। अभी रूम पर जाकर तुमसे बात करता हूँ।

वह मोबाइल लेकर फिर से घाट पर जा पहुंचा और एक शिला पर बैठ गया। घण्टे भर दोनों बातें करते रहे। फोन काटने के बाद अनिकेत ने सोचा. शायद दूरी  से प्रेम की लहरें उठती है।

दूर घाट पर एक भगवाधारी साधु इकतारे पर कुम्भनदासजी के शब्दों को दुहरा रहा था। हिलगनि कठिन है या मन की।

जाके लिए देखि मेरी सजनी, लाज गई सब तनकी।

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