कर्मशीलता

माणक सुथार

लेखक चिन्तक एवं स्तम्भकार है। पता – सी 179, मुंरलीधर व्यास काॅलोनी, बीकानेर ।

यू तो इस संसार की नियति ईश्वर ने तय कर रखी है, इसका कर्ता-धर्ता-नियंता व संहारकर्ता ईश्वर ही है। पर ईश्वर पल पल व घड़ी घड़ी अवतार नहीं लेता। महापुरूषों के माध्यम से वह अपने कार्यों को अन्जाम देता है। ईश्वर ने प्रत्येक इन्सान के लिये लौकिक कर्तव्य तय कर रखे है । शास्त्रों में अनेक प्रसंग मिलते है कि नितान्त अज्ञानी व्यक्ति ब्रह्मज्ञानी से पहले ब्रह्म की प्राप्ति का अधिकारी बना क्योंकि उसने समाज व मानव के प्रति अपने कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन किया। सन्यास की बजाय गृहस्थ जीवन ज्यादा कठिन व महान बताया गया हैं क्योंकि गृहस्थ, सन्यासी की तरह अर्कमणय होकर मठों व जंगलों में नहीं बैठता। कौरवों व समस्त पापियों का संहार भगवान श्री कृष्ण एक पल में कर सकते थें पर उन्होंने अर्जुन को अपने कर्तव्यों का भान कराते हुवे, अर्जुन के माध्यम से यह कार्य करवाया ।प्रश्न यह नहीं कि अकेले एक इन्सान के सोचने या करने से पहाड़ सी बुराईयां व अन्याय का आलम दूर कैसे होगा, प्रश्न यह है कि मैं इस दिशा में अपने कर्तव्यों का निर्वाह कितनी ईमानदारी से करता हूं।  अगर स्वतंत्रता सेनानी यह सोचते कि  पूरी दुनिया पर राज करने वाले ब्रिटिश शासन से लोहा लेना मुर्खतापूर्ण है तो शायद भारत आज भी गुलाम होता। अफ्रिका में महात्मा गांधी के पहले सत्याग्रह आन्दोलन के बारे में उस समय की परिस्थितियों में जी कर सोचे, तो सत्याग्रह का विचार नितान्त एक मुर्खतापूर्ण व अव्यवहारिक अवधारणा लगता है । 

अपने आसपास बिखरी बुराईयां, फैले अन्याय के बारे मे सोचना कोई मुखर्तापूर्ण बात नहीं बल्कि एक सकारात्मक पहल है जो प्रयासों की गम्भीरता व गहनता के सहारे उनके उन्मूलन का कारण बन सकती है। अन्याय, असमानता दुनिया में हमेशा रहेगी पर उनके मिटाने के लिये प्रयास व क्रांतियां भी हमेशा होती रहेगी। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि दुनिया में विसमता हमेशा रहेगी पर उन्होंने स्वयम् मानव समाज में फैली विषमताओं को दूर करने के लिये प्रयास किये । कुरूक्षेत्र के युद्ध के बाद भी आज  दुनिया धृतराष्ट्रों व दुर्योधनों से पीड़ित है तो क्या कुरूक्षेत्र का युद्ध निरर्थक व एक मुर्खतापूर्ण घटनाक्रम था, नहीं । कुरूक्षेत्र का युद्ध एक सामयिक आवश्यकता था जिसे भगवान ने एक मानव के हाथों उसके कर्तव्य के रूप में सम्पन्न करवाया ।  

प्रत्येक इन्सान के अपने समाज व मानवता के प्रति कर्तव्य होते है । अगर इन कर्तव्यों का पालन किया जाये तो उनका महत्व वीरान पहाडों व जंगलों में की गई कठोर तपस्या या शास्त्रों के गहन अध्ययन से कमत्तर नहीं होता।  बुद्ध, आत्मज्ञान होने के पश्चात जंगल में क्यों नहीं चले गये, जनसमुदाय के समक्ष प्रवचन देने की क्या आवश्यकता थी उनको, क्योंकि जनमानस को सहीमागदर्शन देना उनका मानवीय  कर्तव्य और ईश्वर की मंशा थी । आचार्य शंकर व स्वामी रामसुखदास जी को ब्रह्मज्ञान होने के पश्चात उनके द्वारा ग्रन्थों को रचने की क्या आवश्यकता थी । वो गुफाओं में एकान्त वास में आत्मलीन होकर भी अपना आघ्यात्मिक सफर तय कर सकते थे पर ग्रन्थों की रचना कर उन्होंने समाज व मानव के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह किया और मानवता के प्रति ईश्वर के आदेश की पालना की ।  इस कलयुग में, जबकि गुरू का मिलना दुर्लभ हो गया है, गुरू को ढूंढ पाना असाध्य हो गया हैं, उनके रचे ग्रन्थ अन्धें की लुकाटी बने हुवे है  । 

प्रश्न उठता हैं कि, आज के युग में एक गृहस्थ व सामान्य ज्ञान-विवके वाला  व्यक्ति अपने कर्तव्यों का निर्वाह कैसे कर सकता है….?  मेरा मानना है कि यदि उसमें नेतृत्व के गुण है तो अपनी मान्यताओं के अनुरूप समाज व मानव के कल्याण हेतु संस्था का निर्माण करे, अगर वह मेरे जैसा घघु इन्सान है तो वह विधमान समाज सेवी संस्थाओं या कार्यक्रमों में अपने सामथ्र्य के अनुरूप शारीरिक योगदान करे ।  अगर वह मानता है कि गाय की सेवा होनी चाहिए तो गौशाला का निर्माण करे । गौशाला का निर्माण यदि उसके बूते की बात नही तो गौशाला में आर्थिक या शारीरिक सहयोग दे । अगर मानता है कि पेड़ लगाने चाहिए तो इस हेतु किसी संस्था का निर्माण करे नहीं तो अपने आसपास लगे किसी एक पेड़ में ही पानी दे। अगर नियमित रूप से पानी नहीं दे सकता तो जब भी मौका मिले ऐसा करे । किसी एक भूखे को भोजन करा कर भूखमरी को खत्म नहीं किया जा सकता पर भूखे को भोजन कराने का महत्व सदा रहा है और रहेगा। इसी प्रकार एक पेड़ लगाकर पर्यावरण के असन्तुलन को दूर नहीं किया जा सकता, किसी एक गाय को एक रोटी देकर गायों की दर्दनाक स्थिति को सुधारा नहीं जा सकता, किसी एक व्यक्ति को शिक्षित कर अशिक्षा के सम्पूर्ण अन्धकार को मिटाया नहीं जा सकता पर, मंजिल की प्राप्ति में हर एक कदम का अपना महत्व है और उठाया गया हर एक कदम मंजिल को और नजदीक ले आता है । 

अगर कोई व्यक्ति आय की विसंगतियों के बारे में बात करता है तो उसके विषय की प्रासंगिकता इस कारण से महत्व नहीं खों देती कि वर्तमान युग तो पूंजीपतियों का युग है और वर्तमान परिस्थितियों में तो इसे बदलना असम्भव है या  ऐसा तो आदि काल से हो रहा है। अगर कोई बुराई आदि काल से चली आ रही है तो भी उसे बुराई ही कहा जायेगा,  उसे समाज के एक अंग के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। यदि हर युग में समाज में बुराइया व्याप्त रही हैं तो व्याप्त बुराइयों को दूर करने के लिये प्रयास भी सदा होते रहे है ।

जब आय की विसंगतिया अपनी सीमा लांघ गयी तो फ्रांस व रूस में उस समय असम्भव सी लगने वाली क्रांतियां घटित हुई । मन मस्तिष्क में छटपटाता शोषण व अन्याय का विरोध सक्षम नेतृत्व के सामने आते ही क्रांति के रूप में परिणित हुआ ।  

भारत देश पिछले हजारों सालों से गुलाम रहा हैं । सदियों तक गुलामी ढोते रहने के अन्य अनेक कारणों में से एक कारण, आध्यात्मिकता को लेकर ज्ञानीजनों व आमजन द्वारा बनायी गयी यह छिछली, अधकच्ची व एकपक्षीय धारणा कि यह संसार नश्वर है, जो कुछ हो रहा है ईश्वर की इच्छा से हो रहा है, इसका कर्ताधर्ता ईश्वर है,  मुझे इस संसार से क्या लेना, मेरे कुछ करने से क्या होने वाला है।  आध्यत्मिक होने की इस आत्मघाती अवधारणा ने कायरता व अकर्मणयता को बढ़ाया। संसार नश्वर होते हुवे भी प्रभु की रचना है और प्रभु चाहता है कि मानव इस संसार के प्रति अपने मानवीय कर्तव्यों का पालन करे, जो बौद्धिक व शारीरिक क्षमता उसे प्रदान की है उसका उपयोग वह इस जगत को सजाने संवारने में करे। 

मेरा मानना है कि हर इन्सान को चाहे वह गृहस्थ हो या साधु अपने आध्यात्मिक सफर के साथ साथ,  समाज, देश व मानव मात्र के भले के प्रति कर्मशील रहना चाहिए तब ही मानव जीवन, वास्तव में सफल कहलायेगा  ।

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