अमिता
लेखिका शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय है।
सिनेमा का क्रेज किसे नही हैं ? बच्चें, बुढ़े, नौजवा सबके मनोंजन का लोकप्रिय साधन है। आमतौर पर आप लोगों ने देखा होगा साप्ताहिक अखबार के साथ एक रंगीन पेज जिस पर सिनेमा जगत की खबरें होती है; हम उसे पढ़ना नहीं भूलते। इससे होता तो कुछ नहीं हां मूड जरूर लाइट हो जाता है। खैर आज तो इंटरनेट की बदलौत सब जानकारियां आसानी से उपलब्ध है। फैशन हो या अपने पसंदीदा अभिनेताओं के जीवन से जुड़ी खबरें हम अपने समयानुकुल पढ़ ही लेते है। सप्ताह के प्रत्येक शुक्रवार कौन सी फिल्म प्रदर्शित हो रही है ? सिनेमा के प्रति नई पीढ़ी का यह क्रेज स्वाभाविक है। प्रश्न यह है कि बच्चों का जो क्रेज सिनेमा के प्रति है, क्या सिनेमा भी उन्हें केंद्र में रख कर फिल्मों का निर्माण कर रहा है। इसका जबाव ‘हां’ भी हो सकता है और ‘ना’ भी। सिनेमा प्रत्येक पीढ़ी के अनुसार मनोरंजन परोसता है। सिनेमा जगत की बाल आधारित कुछेक फिल्में अभिभावकों एवं समाज की आंखें भी खोलती है। लेख में उन चुनिंदा फिल्मों के आधार पर यह स्पष्ट करने की चेष्टा की गई है, सिनेमा बाल मन से अछूता नहीं।
माना सिनेमा का मुख्य उद्देश्य व्यवसायिकता है। बावजूद इसके बच्चों को केंद्र में रखते हुए भी सिनेमा निरंतर रचा जा रहा है।
बाल केंद्रित फिल्मों में न भूलने वाली सर्वप्रथम फिल्म ‘जागृति’ का नाम लिया जा सकता है। किशोरों के मन में अपने देश के लिए प्रेम, त्याग, बलिदान, मेहनत से कभी जी न चुराना जैसी अनमोल नसिहतों को इसमें पेश किया गया है। फिल्म गुरू-शिष्य के आत्मीय संबंध को बखूबी ढंग से पेश करती है। इस फिल्म का बेहद चर्चित गीत ‘हम लाए है तुफान से कश्ती निकाल के इस देश को रखना मेरे बच्चों सम्भाल के। आज भी राष्ट्रीय पर्व 15 अगस्त एवं 26 जनवरी पर ये गाना दिल से सुना जाता है।
सिनेमा जगत में ‘शोमेन’ के नाम से विख्यात राजकपूर ने भी व्यवसायिक सिनेमा को दरकिनार रखते हुए ‘बाल केंद्रित’ फिल्मों का निर्माण किया। जिनमें ‘बूटपालिश’ और ‘अब दिल्ली दूर नहीं है’ प्रमुख है। ‘बूटपालिश’ फिल्म अनाथ-किशोर-किशोरियों को चोरी-चकारी तथा अपराध की दुनिया से दूर रहने की सीख देती है। इस फिल्म का गाना ‘नन्हे-मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है’ बच्चों को सीख देता है कि भीख में गर मोती भी मिले तब भी नहीं लेना चाहिए। राजकपूर की अगली फिल्म ‘ अब दिल्ली दूर नही’ बच्चों को सीख देती है कि जीवन में निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए। कभी हार नहीं माननी चाहिए।
बात गर बच्चों और सिनेमा की हो तब हम गुलजार साहब को भला कैसे भूल सकते है बाल मनोविज्ञान का उन्हें गुरू कहा जा सकता है। वे बच्चों से सहजता से अभिनय कराते है। आपको लगेगा ही नहीं कि आप सिनेमा हॉल में है बल्कि आपको घर जैसी अनुभूति होगी। ‘परिचय’ फिल्म के मास्टर राजू से उन्होंने बेहतरीन अभिनय कराया। ‘किताब’ फिल्म में भी उन्होंने मास्टर राजू और टीटू से उम्दा अभिनय कराया है। गुलजार साहब ने बच्चों के लिए कई बेहतरीन गाने लिखे है। उनके गीत स्कूल के कार्यक्रमों एवं पिकनिक पर आज भी गाए जाते है। ‘सा रे के सारे ग मा को लेकर हम…. गाते चले (परिचय), अ आ इ ई मास्टर जी कि आ गई चिट्ठी (किताब), लकडी की काठी काठी पे घोड़ा (मासूम) रेलगाड़ी, रेलगाड़ी (आशीर्वाद), चप्पा चप्पा चरख चले (माचिस)।
राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म ‘दोस्ती’ ने परंपरागत धारणा को तोडा; फिल्में तभी चलती है जब उनमें बड़े नाम हो या रोमांस। यह फिल्म दो दोस्तों की कहानी है। दोनों ही विकलांग होते है लेकिन प्रकृति ने उन्हें उपहार में संगीत की कला भेंट की है। ये दोनों दोस्त हाथ पकड़कर मुम्बई की सड़कों पर अपनी कला का जलवा बिखरते है, जिसे देख दर्शक भावुक हो जाते है।
बच्चों में सिनेमा को लेकर अलग उत्साह रहता है। कई बार जो कुछ सिनेमा में दिखाया जाया है, वे उसका अंधानुकरण करने लगते है। उनमें इतनी समझ नहीं होती कि वे असल और नकल में फर्क कर सके। यह सत्य है, सिनेमा हमें समाज की सच्चाई से रू-ब-रू अवश्य कराता है। परन्तु यह उन सच्चाईयों का महज नाट्य रूपांतरण है। इस बात को ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘गुड्डी’ में भलीभांती दिखाया गया है। ‘गुड्डी’ की नायिका अभिनेता धर्मेंद्र की प्रशंसक होती है। वह उसे मन ही मन प्रेम करने लगती है। अपने प्रेम को पाने के लिए वह पढ़ाई और घर वालों से नाता तोड़ने को आतुर हो जाती है। ऐसे में धर्मेंद्र खुद पहल कर नायिका के सिर से सिनेमा का भूत उतारते है। इस फिल्म का एक गाना बेहत चर्चित रहा- ‘हमको मन की शक्ति देना दाता… मन विजय करे’। यह गाना कई विद्यालयों की प्रार्थना सभी में आज भी गाया जाता है।
‘जो जीता वहीं सिंकदर’ भी स्कूल के बच्चों की आल टाइम फिल्म कही जा सकती है। इस फिल्म की पटकथा प्रेम, दोस्ती प्रतिस्पर्धा, अभाव के साथ-साथ इंसानी जज़्बात की ऐसी कहानी है, जिससे प्रत्येक आयु वर्ग का प्राणी सीधे जुडाव महसूस करता है। इस फिल्म का संदेश बेमिसाल है-‘अक्सर जिसे हम खोटा सिक्का समझते है, वह भी एक दिन सिकंदर साबित हो सकता है।
सिनेमा जगत में कई फिल्में ऐसी भी है जो बाल केंद्रित तो नहीं। परन्तु उनमें बालकांे की भूमिकाओं की अहम भागीदारी होती है। इस फेहरिस्त में ‘मेरा नाम जोकर’, ‘आ गले लग जा’, ‘प्यार झुकता नहीं’, ‘अकेल हम अकेले तुम’, ‘हम है राही प्यार’ के आदि प्रमुख है। इन फिल्मों में बालक केंद्र में तो नहीं, लेकिन फिल्म के कलाइमेक्स में उन्हीं भूमिका अहम है। मसलन परिवार को जोड़ने, रूटे मियां-बीबी को मिलाने का दारोमदार इन नन्हें-मुन्नों पर ही होता है।
ये तो जगजाहिर है, सिनेमा हमारा मनोरंजन करने के साथ-साथ हमें सामयिक मुद्दों से भी अवगत कराता है। समयानुसार हमारे एजुकेशन सिस्टम में भी परिवर्तन आए हैं। दिन-प्रतिदिन बढ़ते प्रतिस्पर्धा, शीघ्रातिशीघ्र नौकरी पाने की लालसा में हमारी शैक्षणिक संस्थाओं में भी demand and supply का रवैया देखा जा सकता है। अर्थात् आज अभिभावक अपने बच्चों को प्रत्येक क्षेत्र में अव्वल देखना चाहता है। अब जैसी डिमांड होगी supply भी तो वैसी ही होगी ना।
किसी को बच्चों के विलुप्त होते बचपन का ख्याल नहीं। बचपन क्या होता है? ये आज की पीढ़ी नहीं जानती। बच्चों के स्कूल जाते ही अभिभावक उन पर अपनी उम्मीदों का बोझ डाल देते है। बचपन मतलब मस्ती, न कोई डर न फिक्र, उन्मुक्त आसमां में विहग की भांति विचरण करना। परंतु आज हम बच्चों के बचपन पर गौर करें तो ज्ञात होगा उनका बचपन उनके अपने ही समय से पहले छिन लेते है। आज बच्चे अधीर है, बैचेन है, सहमें हुए है, चिड़चिडेपन से ग्रसित है। वह जो कुछ कर रहे है, उसे जो बनाना है सब थोपा हुआ है। अभिभावकों की अति महत्वाकांक्षा के चलते विलुप्त होते बचपन की कहानी है ‘तारे जमीन पर’। यह फिल्म ऐसे अभिभावकों को एक डपटनुमा संदेश है। जो अपनी महत्वाकांदगओं की पूर्ति के लिए मासूमों से उनकी खुशियां, उनके सपने छिन लेते है। फिल्म में 9 वर्ष का ईशान अपने माता-पिता और भाई के साथ मुंबई शहर में रहता है। माता-पिता की परेशानी का कारण यह है कि, उनके दोनों बच्चों में से एक हमेशा अपने माता-पिता की बताई राह पर चलता है और उनके अनुसार कक्षा में अच्छी रैंक हासिल करता है। दूसरा, अपने भाई से एकदम उलट है। उसे अक्षर अपने दुश्मन नजर आते है। वह उनकी पहचान सही ढंग से नहीं कर पाता। माता-पिता अपने बच्चे की कमियों के कारणों को नहीं जान पाते। न ही उसमें निहित हुनर को पहचान पाते। जब उसे बोर्डिंग स्कूल भेज दिया जाता है तब, वहां ड्राइंग के अध्यापक ‘राम शंकर निकुम्ब’ उसके डिस्लेक्सिया डिस्आर्डर को पहचानते है। वह ईशान के अंदर छुपी चित्रकारी प्रतिभा को भी पहचान लेते है। धीरे-धीरे ईशान अपने अध्यापक से प्रेरणा पा अपने भीतर छिपे चित्रकार को जगाने में कामयाब हो जाता है। बाद में अध्यापक रामशंकर उसे उसी के अंदाज में उचित मार्गदर्शन से उसकी पढ़ाई-लिखाई में भी सुधार कराते है।
एक ऐसी ही दिल को छू लेने वाली फिल्म है ‘स्टेनली का डिब्बा’। इस कहानी में एक पेटू शिक्षक है। जो सब बच्चों के टिफ्फन खा जाता है। स्टेनली, चूंकि गरीब है। उसके मां-बाप नहीं। वह अपने मुंह बोले भाई के साथ रहता है। उसके भाई का एक ढाबा है। लेकिन वह कभी डिब्बा लेकर नहीं जाता। खडूस शिक्षक जब यह देखता है कि, सभी बच्चे उसके बजाए स्टेनली को अपना लंच खिला रहे है। तब वह उसे सब बच्चों के सामने बुरी तरह डांटते हुए कहता है- ‘डिब्बा नही, स्कूल नहीं’। स्टेनली के बालमन पर उस डांट का इतना गहरा असर होता है कि, वह स्कूल जाना छोड़ देता है। अंत में जब स्टेनली उस खडूस के लिए डिब्बा लेकर जाता है, तब वह कहता है कि ‘सर ये रहा आपका डिब्बा, क्या अब मैं स्कूल आ सकता है। यह दृश्य दर्शकों को अत्यंत भावुक कर देता है।
बच्चों के लिए फिल्म बनाने के संदर्भ में भारत सरकार ने स्वतंत्रता के उपरांत ही पहल की शुरूआत कर दी थी। सन् 1955 में जवाहर लाल नेहरू जी ने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने चिल्ड्रन फिल्म सोसायटी का गठन किया। जिसका उद्देश्य बच्चों के लिए प्रेरक फिल्मों का निर्माण करने के साथ-साथ समाज में जागरूकता पैदा करना है। इस संस्था ने बच्चों के लिए कई महत्वपूर्ण फिल्मों का निर्माण किया है। जिसमें चरण दास चोर, भारत दर्शन, बाजार, महक आदि प्रमुख है। हालांकि पिछले एक दशक से बच्चों पर आधारित कई फिल्मों ने दर्शकों को अपनी ओर खींचा है। बालकों की विकलांगता हो, या कोई मनोवैज्ञानिक समस्या या स्कूल प्रशासन की समस्या। भिन्न-भिन्न मुद्दों पर हिंदी सिनेमा निरंतर फिल्म निर्माण में लगा हुआ है। इन मुद्दों से संबंधित हाल ही में प्रदर्शित फिल्में है- Rough Book, चॉक एंड डस्टर एवं हिचकी आदि। इस प्रकार हम देखते है कि बच्चों के लिए सिनेमा बहुतायत उपलब्ध है। बस जरूरत है, तो बच्चों को इन फिल्मों को देखने के लिए प्रेरित करना ताकि वे कल को एक जिम्मेदार नागरिक बन सकें।