वंचना और अधिकार चेतना

राजाराम भादू

किसी भी समाज के वंचित समूहों के सशक्तिकरण और अधिकार चेतना के मध्य गुणात्मक और परिवर्तनकारी सहसंबंध सिद्ध हो चुका है। इस संदर्भ में यहां समान्तर के कुछ जमीनी अनुभवों को बांटने की कोशिश की जा रही है। समान्तर भरतपुर वाई माधोपुर के कस्बे गंगापुर सिटी और कुछ समय के लिए जयपुर की कुछ बसाहटों में काम करता रहा है। ये सभी शहरी गरीबों की बस्तियां हैं जिन्हे झुग्गीए कच्ची अथवा मलिन बस्तियाँ कहा जाता है। ग्रामीण समुदाय से भिन्न यहां साक्षरता स्तर और सामान्य बोध बेशक अपेक्षाकृत उन्नत है लेकिन यह काम में मददगार होने की जगह अडचन बनता है। गांव वालों में अपनी अवस्थिति को लेकर यह अहसास होता है कि वे निर्बल और पिछडे हैं जबकि शहरी गरीब पाना तो सब चाहते हैं किंतु अपनी बदहाल स्थिति को लेकर उनमें आत्म स्वीकार का भाव प्राय नहीं होता है । वंचितों के बीच काम करते हुए समान्तर ने अधिकार चेतना आधारित एप्रोच को अपनी बुनियादी रणनीति बनाया है। इस रणनीति के क्रियान्वयन से जुड़े कुछ अनुभवों को विश्लेषित कर सूत्रीकरण का एक आरंभिक प्रयास किया गया है।

सशक्तिकरण के संदर्भ में विकास के विमर्श को भी साथ लेकर चलना होता है। विकास की अवधारणा का अर्थ समूहों से इसकी सापेक्षता में ही उद्घाटित होता है। अमर्त्य सेन विकास को लोगों की स्वतंत्रता और बेहतरी से जोडकर देखते हैं। वंचितों के क्षमता वर्धन से ही उन्हें विकास की धारा से जोड पाना संभव होता है। वंचितों के समूह निर्माण और संगठन के माध्यम से उनकी क्षमताओं को बढाना अधिक प्रभावी हो सकता है। वंचितों के वर्चस्व शालियों से अन्तर्विरोध तो संगठन निर्माण में बाधा बनते ही हैं बल्कि वंचितों के अन्तर्भेद भी उसमें मुश्किलें पैदा करते हैं। यहाँ दलित समूहों को संगठित करते हुए पाया गया कि इनके बीच महाराष्ट्र की तुलना में ज्यादा अंतर है।  यहां दलित भी अनेक जातियों में बंटे हैं। वाल्मीकि समुदाय से अपेक्षाकृत राजनीतिक रूप से सचेत अन्य दलित जातियों का करीबन कोई संबंध नहीं है। उनमें जो नेतृत्व उभर कर आया भी है उसमें अपने समुदाय को विकास की प्रक्रिया से जोडने जैसी सोच नहीं है। वे प्राय स्थानीय स्तर के किसी नेता के लिए काम करते हैं। शायद इसीलिए राजस्थान में बड़े दलित संगठन नहीं बन पाये हैं।

हमने पाया कि सामाजिकए आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से इन बस्तियों में बहुत एकरूपता और सहकार की स्थिति नहीं है। अगर बस्ती का नाम किसी जाति समुदाय पर है तो भी उस जाति विशेष की बहुलता के बावजूद वहाँ कम संख्या में ही सही किसी और जाति के भी घर हैं। वाल्मीकि बस्तियों में इधर उधर मुस्लिम और खटीक जैसी हिन्दू जाति बसी हैं। इनमें परस्पर बहुत मेलजोल नहीं होता है। खुद वाल्मीकि लोगों में आपसी वैमनस्य और संकीर्णता काफी मात्रा में पायी जाती है।

राजस्थान में दलित संघर्षों के सामूहिक इतिहास नहीं हैं जो उनकी सामाजिक गतिशीलता को अनुप्राणित कर सकें। बल्कि पीड़ितों की तुलना में उत्पीडक कहीं ज्यादा संगठित हैं। यहाँ एक सामान्य दलित अस्मिता भी नहीं उभर पा रही है जबकि यह दलितों की विभिन्न जाति अस्मिताओं में विभाजित है। दूसरी तरफ जातियों के पारंपरिक रूपों में जबरदस्त बदलाव आ गया है। यहां गंगापुर सिटी की दो बस्तियों की बनावट देखें। एक बस्ती का नाम है सपेरा बस्ती। नाम के हिसाब से इसमें सपेरों के घर ज्यादा हैं। दूसरे स्थान पर मदारी हैं इसके अलावा भी अन्य जातियों के भी कुछ घर हैं। सपेरे हिन्दू हैं जबकि मदारी मुसलमान हैं। यह धर्म का कारक उनमें सांस्कृतिक दूरी बढा देता है। अब सपेरे सांप नहीं पाल सकते और न मदारी बंदर भालू क्योंकि यह गैर कानूनी हो गया है। नतीजतन अब इनकी तथा बस्ती में रहने वाले बाकी परिवारों की समस्याएं समान हैं। इसी भांति एक कीर फकीर बस्ती है और नाम के अनुरूप बस्ती में कुछ परिवारों को छोडकर सभी कीर और फकीर हैं। कीर हिन्दू हैं और पहले मशक में पानी भरकर सार्वजनिक जगहों पर छिड़काव करते थे। रियासत काल में सामंत और बाद में नगरपालिका इन्हें भुगतान करती थी। निजी लोग भी शादी समारोह वगैरह में इनसे पानी मंगवा लेते थे। अब नगरपालिका के पास ट्रैक्टर के साथ अपने पानी के टैंकर हैं। ऐसे प्राइवेट टैंकर भी चल रहे हैं। फकीर मुस्लिम हैं और कभी सूफी संतों के अनुयायी थे। ये पारंपरिक रूप से मांग कर खाते थे। इधर के वर्षों में हिन्दू मुस्लिमों के बीच बढती दूरी के चलते हिन्दुओं ने इन्हें भीख देना लगभग बंद कर दिया। दूसरी ओर चूंकि इस्लाम में भीख मांगने की इजाजत नहीं हैए इसलिए मुल्ला मौलवियों ने इन पर ये पेशा छोडने के लिए दबाव डाला। नतीजतन इन दोनों समुदायों के पारंपरिक धंधे छूट गये। जाहिर है कि अपने को नयी तरह के काम धंधों में डालने की जद्दोजहद में ये लोग लगे हैं। लेकिन किसी प्रकार की सामूहिकता का बोध इनके बीच नहीं था।

संविधान स्वीकार करता है कि हमारे समाज में विषमता और सामाजिक अन्याय है। ऐसे समूह हैं जो सामाजिक आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से पिछड़े हैं। इसके मायने हैं कि उत्पीड़ित और वर्चस्वशील समूहों के बीच तीखा अन्तर्विरोध है। गरीबी अस्तित्वमान है। तब आजादी के बाबजूद भी यदि पीड़ित को मुश्किल में मदद नहीं मिलती तो वह हताश हो जाता है। ये हताशा इनकी बदहाली को एक भयावह दुश्चक्र में बदल देती है। अपनी समस्याओं की समानता और उनसे जूझने में सहयोग की शक्ति का अहसास इनमें नयी तरह की आशा का संचार कर सकता है। जब ये परस्पर संवाद और मिलकर काम करने लगते हैं तो वहाँ सामूहिकता पैदा होती है जिसकी इनके बीच बहुआयामी भूमिका निकल कर सामने आती जाती है।

हमने अपने कार्य क्षेत्र की हरेक बस्ती में एक सामुदायिक समिति जैसी संरचना बनाने से शुरूआत की। ये ढीले ढाले कम्युनिटी कलेक्टिव थे जिनमें पद क्रम आधारित कोई ढांचा नहीं था। इनके एजेंडा में समुदाय की सामान्य समस्याएं होती थीं और जाति धर्म के मसलों को इससे बाहर रखा जाता था। वैसे भी इनके लिये अलग मंच थे ही। हमने आसानी से सुलझने वाले मुद्दे लिये ताकि समस्याएं सुलझने के साथ इनमें आत्मविश्वास आता जाये। राशन पानी की ऐसी समस्याओं से शुरूआत की गयी। फिर भी जटिल चीजों की कमी नहीं थी। कीर फकीर बस्ती में महिलाएं ज्यादा सक्रिय थीं। वहाँ पीने के पानी की समस्या थीए पेयजल लाइन बस्ती से पहले ही समाप्त हो जाती थी। मैं जिस विश्राम गृह में रुकता थाए उसी में वहाँ नयी नियुक्त हुई एस डी एम रुकी हुई थी। मैं ने देखा कि उसका स्वभाव काफी सकारात्मक था। मैं ने बस्ती की महिलाओं को उससे मिलने का सुझाव दिया। महिलाओं ने हमारे प्रोत्साहन पर उसे मिलकर ज्ञापन दिया। अगले ही दिन एसडीएम जलदाय विभाग के कर्मचारियों को लेकर बस्ती में गयी और आगे तक लाइन बिछाने का आदेश दे दिया। इस दौरान वहाँ टैंकर से पानी सप्लाई करवाया गया। महिलाओं का आत्मविश्वास बढना स्वाभाविक था। बाद में उन्होंने अपने स्कूल को क्रमोन्नत करानेए उसकी चाहरदीवारी बनवाने जैसे कई काम कराये।

भरतपुर में एक बस्ती बाबरी समुदाय की है जिनको पारंपरिक रूप से जरायम पेशा माना जाता है। ये लोग कागज के फूल वगैरह बना कर अपना जीवन यापन करते हैं। इनकी बस्ती नगर सुधार न्यास की एक कोलोनी के आखिर में बसी है। इसके एक ओर रेलवे लाइन है और सामने की तरफ की रोड अब बाईपास में बदल गयी है। इस कारण बसाहट वाली जगह बहुत मूल्यवान हो गयी है। ऐसे में भू माफियाओं की नज़र पडनी ही थी। वे पुलिस से मिलकर यहां से उन्हें खदे्डने के प्रयास करने लगे। एक रात को पुलिस ने बस्ती में रेड डालीए उनके साथ गये भू माफियाओं ने घरों में आग लगा दी। बस्ती के लोगों ने हमारी प्रभारी को फोन किया जिसने हमसे संपर्क किया। हमने उसे स्थानीय मीडिया और अपने वकील से तुरंत संपर्क करने को बोला। यहां हमने मानव अधिकारों के लिए बने अपने राज्य स्तरीय नेटवर्क से संपर्क किया। जिस समय पुलिस और प्रशासन के लोग वहाँ पहुंचेए उन्होंने मीडिया और हमारी प्रभारी के साथ वकील को पहले से पाया। इससे तथ्यों को छुपाना मुश्किल हो गया और जब राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की टीम आयी तो उन्हें वास्तविकता को समझने में आसानी हुई। इसका नतीजा यह हुआ कि आयोग की अनुशंसा पर इन्हें उसी जगह पट्टे आवंटित कर दिये गये। इसी के साथ इन्हें आये दिन को होने वाले पुलिस उत्पीड़न से भी काफी हद तक राहत मिल गयी। हालांकि ये समूह स्वतंत्र रूप से काम करने लगें ए ऐसी स्थिति आने में समय लगना है। तब तक इन्हें किसी स्थानीय सपोर्ट तंत्र की आवश्यकता बनी रहनी है।

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