डॅा ब्राइट केसवानी
लेखक शिक्षाविद् है।
पता- सुरेश ज्ञान विहार विश्वविद्यालय, जयपुर।
चीत्कार
रात के उस भयानक प्रहर
जब पुकार रही थी वो
कुछ इंसानी ‘जनवरों ’ से घिरी
तब निश्चय ही उसकी दारुण ‘चीत्कार’ सुनी
चबूतरे पर गपशप करते धर्म के ‘ठेकेदार’
पुजारी, मौलवी और पादरी ने
गश्त पर निकली
लेकिन ‘मधुशाला’ से लौट रही
पुलिस की किसी जीप ने
निज हितों के लिए
पास ही कहीं
आमरण अनशन पर बैठे बूढ़े हो चुके ‘युवाओं’ ने
औऱ चुनावी प्रचार से लौट रहे
स्वार्थी राजनेता के काफ़िले ने भी
अगली सुबह
सब तैयारी कर रहे थे
तख्तियाँ लिए
निकलने की जुलूस
ताकि
भुना सकें ‘अवसर’ औऱ पा सकें ‘ख्याति’ ।
कविता का जीवन चक्र
फ़ागुन माह में
पलाश खिलते ही
वो आ जाती है अपनी छत पर
कपड़े सुखाने के बहाने
औऱ
कनखियों से कुछ ढूंढती सी
निहारती है
प्रेमी के घर की ओऱ
तब कविता जन्म लेती है ।
किसी ट्रैफिक लाइट पर
गाड़ी रुकते ही
सड़क के किनारे
ताक में खड़े
कुछ फटेहाल बच्चे
दौड़ पड़ते हैं
कपड़ा लिए हाथ में
औऱ
साफ करने लगते हैं
शीशे कारों के
तब कविता परिपक्व होती है
जब उमड़ते सारे ख़याल
सारे विचार
दफ़न कर दिए जाते हैं
मन की किसी ग़हरी कोठरी में
औऱ
नहीं उकेरे जाते कागज़ों पर
तब कविता दम तोड़ देती है ।
समर्पण
मां रोती नहीं कभी
सिर्फ मुस्कुराती है
औऱ
दुख के किसी गहरे समंदर से
चुन चुन कर
समेट लाती हैए
आँखों में अपनी
सुख के असंख्य मोतीए
उंडेलती रहती है
आँचल से अपने
प्रतिक्षण ।
मां रोती नहीं कभी
सिर्फ मुस्कुराती है
तब भी
जब उसके निःस्वार्थ प्रेम को
मिलती है उपेक्षा ।
मां रोती नहीं कभी
सिर्फ मुस्कुराती है
तब भी
जब पाती है गहरा तिरस्कार
अपनों की नज़रों में ।
रोज़ झेलकर ज़हर बुझे कटाक्ष
मां रोती नहीं कभी
सिर्फ मुस्कुराती है
और वो ऐसा करती है
ताकि बना रहे वर्चस्व श्तुम्हाराश्
कायम रहे शान्ति
औऱ
आशियाना ।
स्त्रित्व
सिर्फ़
स्त्रियां ही लिखा करती हैं
सृष्टि का महाकाव्य
श्शाकुंतलमश् या श्महाभारतश्
वे ही तय करती हैं
स्वरूप समाज का
श्रामश् या श्दुर्योधनश्
वे ही तय करती हैं
तुम्हारी भूमिका
औऱ
शायद वे ही सच्ची लेखिका हैं ।
अभिव्यक्ति
मुझे सहज़ ही समझ आ जाता है
प्यार तुम्हारा
कड़ाकेदार सर्दियों में
जब सोया होता है जहां सारा
अलसुबह
तुम उठ जाती हो
बिना किसी अलॉर्म के
औऱ
गर्म पानी ले आती हो
मेरे लिए
मुझे सहज़ ही समझ आ जाता है
प्यार तुम्हारा ।
फिऱ
चाय की गरमागरम प्याली
बिस्कुट
या टोस्ट के साथ
औऱ
मुस्कुराते हुए पास बैठकर पीती हो
बतियाती हो
मुझे सहज़ ही समझ आ जाता है
प्यार तुम्हारा ।
मेरे ऑफिस जाने तक
आगे पीछे घूमकर
हर ज़रूरत पहचाने की कोशिश के
उन पलों में
कितनी असहज होती हो
मुझे सहज़ ही समझ आ जाता है
प्यार तुम्हारा ।
झरोखे से मुझे जाते हुए तकना
फिऱ मुस्कुराहट से उदासी को ढकना
रसोई की ओर पलट कर चल देना
औऱ खाने की तैयारी में जुटना
मुझे सहज़ ही समझ आ जाता है
प्यार तुम्हारा ।
बुख़ार में
मेरे साथ साथ तुम्हारा भी जागना
थर्मामीटर से बार बार तपिश मापना
समय पर दवा देना
औऱ परेशां रहना
मुझे सहज़ ही समझ आ जाता है
प्यार तुम्हारा ।
महीने की सारी तनख्वाह झपटना
औऱ कुछ भी अपने पे ना ख़र्चना
सिर्फ़ घरए बच्चों की परवाह में
सब खुलकर लुटाना
मुझे सहज़ ही समझ आ जाता है
प्यार तुम्हारा ।
समर्पण तुम्हारा, त्याग तुम्हारा
परवाह तुम्हारी, थकान तुम्हारी
जब दिनभर के कामों से टूटकर भी
पुनः जुट जाती हो काम में
मुझे सहज़ ही समझ आ जाता है
प्यार तुम्हारा ।