रमेश थानवी
लेखक वरिष्ठ शिक्षाविद् है पता- 40/97, स्वर्णपथ,मानसरवर, जपुर
आजादी पाने के बाद बापू एक नया देश बनाना चाहते थे। नया समाज बनाना चाहते थे। इस समाज का स्वरूप उनके मन में स्पष्ट था। ऐसा नया समाज आजादी के आंदोलन के दरमयान उनके मन में एक सपने की तरह शक्ल ले रहा था। उस सपने को वे अपने आंदोलन के साथ-साथ तराश रहे थे। मन ही मन उसको सींच रहे थे। सोच रहे थे कि आजादी पाने के बाद हम तुरन्त राष्ट्र और समाज के नव निर्माण में लग जायेंगे। इस नव निर्माण में वे समाज के सर्वांगीण विकास की सम्पूर्ण दिशा बदल देना चाहते थे। शिक्षा, खेती, उद्योग, पर्यावरण और पूरे समाज का ताना-बाना सब कुछ समाहित था। वे इस नव निर्माण में पूरे देष्श् को साथ लेना चाहते थे इसलिए वे बार-बार अपनी हर प्रार्थना सभा में उन मूल्यों का उल्लेख करते थे जिनको हमारे नये समाज की नींव बनना था। उस नींव का शिलान्यास उनके मन में तो हो चुका था। उनका जीवन उस शिलान्यास का प्रमाण था। जीवन की हर कथा उस शिलान्यास की एक शाखा-प्रशाखा को प्रतीकित करती थी। अपने उस सपने को सच करने के लिए बापू ने सवा सौ वर्ष तक जीने का संकेत तक दे दिया था। मगर यह क्या हुआ कि वह सपना अधूरा रहा ? क्यों हुआ ऐसा ?
आज हम जिस मुकाम पर खड़े हैं वहां वह सपना फिर याद आ रहा है। याद यह भी आ रहा है कि महात्मा जी ने आजादी के साथ अमन को सर्वोच्च महत्व दिया था। वे जिस शांति के उपासक थे वह शांति कभी राग, द्वेष और क्षुद्र स्वार्थों से नहीं पायी जा सकती थी। परस्पर भाई चारा और सर्वधर्म समभाव ही उस अमन की स्थापना कर सकता था। उनके मन में कुदरत के जर्रे-जर्रें के प्रति अपार प्रेम था, आदर था और किसी भी कण के अपव्यय में वे अल्लाह मियां की तौहीन समझते थे। यहीं कारण था कि उनकी हर प्रार्थना सभा में ईशावास्य उपनिषद के पहले श्लोक को प्रार्थना की तरह प्रतिदिन दोहराया जाता था। कुदरत के प्रति अगाध श्रद्धा एवं प्रेम के सहारे वे पूरी धरती की चिंता करते थे। उन्हें त्रिकालदर्शी की तरह तभी यह खतरा दिखाई दे गया था कि एक दिन यह मां वसुंधरा जो सब कुछ देती है वहीं हमारी कृपा दृष्टि की मोहताज हो जायेगी। उन्होंने कहा था कि यह धरती सभी प्राणियों की जरूरतों को तो पूरा कर सकती है मगर एक भी आदमी के लालच की यह पूर्ति नहीं कर सकती। उन्हें वनस्पतियों की भी चिंता थी और हमारे ग्रह नक्षत्रों के साथ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की भी। बहुत व्यापक फलक था बापू के नवनिर्माण का मगर वही सब आज धराशायी हो गया। आज फिर से हमें अपने से ही पूछना है कि हम कहां जाना चाहते हैं ? महात्मा जी के मार्ग पर या कि उद्योगपतियों, पूंजीपतियों और सरमायेदारों के दिखाये रास्तों पर ?
महात्माजी ने जान लिया था कि पंूजी कभी मानवीय विकास की आधारषिला नहीं बन सकती। उन्होंने यह भी जान लिया था कि पैसे या सम्पत्ति का लोभ हमें कहीं नहीं ले जा सकता। मानवता के व्यापक फलक के बारे में चिंतित रहते थे महात्मा जी। उनके सामने इंसानियत को बचाने की, बचपन को बचाने की, कुदरत को बचाने की आदि कई चिंतायें थीं। स्वावलम्बन और उसके लिए शारीरिक श्रम उनके सामने एक आवश्यक मूल्यों के रूप में उभरा था। इन मूल्यों में वे तमाम एकादश व्रत शामिल थे जिनकी वे रोज प्रार्थना किया करते थे:-
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, असंग्रह। शरीरश्रम, अस्वाद, सर्वत्र भयवर्जन।। सर्वधर्म-समानत्व, स्वदेशी, स्पर्शभावना। विनम्र व्रतनिष्ठासे ये एकादश सेव्य है।।
उक्त ग्यारह मानवीय मूल्यों के पोषण में ही उन्हें समाज का वास्तविक विकास नजर आता था। ऐसे विकास में परस्पर प्रेम और भाईचारे के साथ समाज में पूर्ण शांति की स्थापना की जा सकती थी ऐसा ही उनका विश्वास था। इन मूल्यों पर खड़ा समाज और इन मूल्यों का पग-पग पर पोषण करने वाला समाज बनाना ही उनका सपना था।
इस सपने में शामिल था समाज का नव निर्माण । समाज का नव निर्माण उनकी नजर में शिक्षा के नवोन्मेष पर टिका था। यहीं वजह थी कि उन्होंने बुनियादी शिक्षा की नींव रखी थी और वहीं फिर नयी तालीम भी कहलायी। सपना यह भी था कि शिक्षा के मार्फत आजादी की जड़ों को सींचेंगे और देष में सच्चे लोकतंत्र की स्थापना करेंगे। इतना सुदृढ़ करेंगे आजादी को फिर कभी कोई भारत को गुलाम बनाने का सोच तक नहीं सकेगा।
उनका विश्वास था कि अगर समाज ने मूल्यों को जीना सीख लिया और उससे भाईचारा निरन्तर पुष्ट होता गया तो यह समाज कबीर की तरह प्रेम करने वालों का समाज बन जायेगा। कबीर को भी प्रेम के ढाई आखर ही दिखायी दिये थे। पोथी पढ़ पढ़ जगमुआ… इस सच को कबीर ने जान लिया था। महात्मा जी को भी यही सच सार के रूप में दिखायी दिया था।
प्रेम को सार के रूप में और सत्य के रूप में जान लेने के बाद बापू षिक्षा को सत्यान्वेषण के मार्ग पर चलाना चाहते थे। सत्य उनके लिए बहुत बड़ा मूल्य था और मनवता को सत्यनिष्ठ बनाना उनकी नजरों में शिक्षा का बड़ा काम था। उनके लिए प्रारंभिक दिनों में तो ईश्वर सत्य था मगर आखिरी दिनों में उन्होंने यह अनुभव कर लिया था कि सत्य ही ईश्वर है। सत्य को इतने ऊंचे स्थान पर प्रतिष्ठित कर देना महात्मा जी के लिए एक बड़ा सपना था। आज अगर समाज सत्य निष्ठ होता तो सारी बुराईयां दफ्न हो जाती। न भ्रष्टाचार होता, न हिंसा होती, न नफरत होती, न ईष्र्या होती, न द्वेष होता, न लोभ लालच होता, न किसी को अपनी तिजोरियां भरने की दरकार होती। न भूख होती, न गरीबी होती, न लोग नंगे और निर्वस्त्र होते और न किसी को किसी का डर होता। समाज पूरा निर्भय होता, निडर होता और एक दूसरे के जीवन में अपना सहयोग देने को आतुर होता। यह सब एक सपने की बात थी। महात्मा जी ने इस सपने को जी कर दिखाया था। उनके मार्ग पर चले होते तो आज यह सपना सच होता, मगर वह अधूरा रह गया और आज भी अधूरा है।
इस अधूरे सपने के साथ आज समूचा देष पंगु बन कर खड़ा है। दिव्यांग है सारा समाज। अंग-उपांग सब लड़खड़ा रहे हैं। बैसाखियां बेचने वाले और बनाने वाले भी नदारद हो गये हैं। महात्मा जी को जीने न देने वाले और गोली मार देने वाले लोग तमाशबीन होकर देख रहे हैं। यह कैसा दुर्भाग्य है कि देश को आजादी दिलाने वाला आदमी आजादी के सात महीने भी नहीं जी सका। वह स्वयं तो अपने शरीर से मुक्त हो गया, मगर देश पूरा अनाथ हो गया। अब हमको डंके की चोट पर यह कहते हुए भी शर्म नहीं आती है कि देश में अशांति है, भुखमरी है, नफरत है, दिलों में आग है और दिमागों में हिंसा है। काश हम यह भी कह देते कि हमारी अपाहिज हैं और अनाथ हैं। मगर हमारी आस्था आज भी गोली पर है, हिंसा पर है और हिंसक लोगों को महिमा-मंडित करने में हम अघाते नहीं हैं। हमारी बेनूरी का आलम तो यह है कि हम चिथड़ों से बने पुतलों को भी गोली मारकर सरे आम अपने दिवालियेपन का प्रदर्शन करते हैं। पुतलों के नीचे लिपटे होते हैं लालरंग से भरे गुब्बारे और फूल कर कुप्पा हो जाते हैं कि हमने फिर महात्मा के पुतले को गोली मारी। यह सब इसलिए संभव हुआ कि महात्मा का सपना अधूरा रह गया। उस सपने को हमने पूरा होने नहीं दिया। तब किसी ने लिखा कि ‘जगाओ न बापू को, नींद आ गयी है।’ जिस महिला ने ऐसी नज्म लिखी थी उसने संभवतया बापू के अचेतन शरीर को भी एक अधूरे सपने में निमग्न देखा था। तब कोई यह कहने वाला भी नहीं था कि ‘इस देश को रखना मेरे बच्चों सम्हाल के…’।
आज की ताजा जरूरत यह है कि हम इतना सा विवेचन करें कि महात्मा का स्थायी अमन और स्थायी आजादी का सपना क्यूं अधूरा रह गया ? हम स्वयं कितने जिम्मेदार हैं उसके लिए और पूरा विश्व कितना जिम्मेदार है ? बहुत सारी बातें जिन पर सोचना पड़ेगा कि जब देष जल रहा था तब महात्मा एक अधनंगे फकीर की तरह नोआखली में क्यूं घूम रहा था ? क्या कारण था कि उसके सामने कई बार हथियार फेल हो गये थे। विश्व की सबसे ताकतवर सत्ता उसके सामने छोटी हो जाती थी। वह कोई कम करिश्मा नहीं था कि सिर्फ तार चिट्ठियों के जमाने में महात्मा को देश के करोड़ों लोगों ने केवल जान लिया था, बल्कि अपना मान लिया था। जहां से गुजरता था वहां हजारों लोग दर्शन को आ जाते थे। प्रार्थना सभाओं में मंत्र-मुग्ध होकर बैठते थे और प्रेम से वह सब कुछ सुनते थे जो महात्मा कहा करते थे। उनका जीवन किस्सों और करिश्मों से भरा पड़ा था। पहले भारत भूमि ने और फिर समूचे विश्व ने उनको जो प्यार और विश्वास दिया वह उनकी अंतिम यात्रा में दिल्ली की सड़कों पर प्रकट हो गया था। मैलविल डिमेलो जो चश्मदीद गवाह थे उस यात्रा के वे स्वयं एक भिखारी को देखकर रो पड़े थे जो दिल्ली के फुटपाथ पर महात्मा के चले जाने के बाद फूट-फूट कर रो रहा था।
आज हमारे सामने चुनौती यह है कि वह अधूरा सपना कैसे पूरा हो ? कौन करे पूरा ?