डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
लेखक समसामयिक विषयों के विशेषज्ञ है। पता – ई-2/211, चित्रकूट, जयपुर
कहा जाता है कि कवि की जिह्वा पर सरस्वती बिराजती है। यह भी कहा-माना जाता है कि कवि भविष्य दृष्टा होता है। जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि- यह उक्ति तो सबकी जबान पर है ही। मुझे ये सारी बातें आज इसलिए याद आ रही हैं कि बशीर बद्र साहब का एक शे’र सुबह से मुझे तंग कर रहा है। शे’र यह है- कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से/ये नए मिजाज का शहर है जरा फासले से मिला करो। मुझे ठीक से पता नहीं कि इस शे’र का रचनाकाल क्या है। लेकिन तीस-चालीस बरस से तो यह शे’र मैं सुन रहा हूं. जाहिर है कि इससे पुराना ही होगा। तो क्या तब बशीर बद्र साहब ने कोरोना के आने की आहटें सुन ली थीं ? उन्होंने भविष्य देख लिया था ? या माता सरस्वती उनकी जिह्वा पर आ बिराजी थीं और जो होने वाला है उसे तभी उनसे कहलवा दिया था ? यह भी हो सकता है कि ऐसा कुछ भी न हो, और यह महज एक संयोग हो। कवि ने लिख दिया और अब ऐसा कुछ घटित हो गया कि हमें कवि की महानता का गुणगान करने का मौका मिल गया ! बहुत बार ऐसा भी हो जाता है। क्या पता इस मामले में भी हो गया हो।
लेकिन यह बात एकदम सही है कि वर्ष 2020 के शुरुआती महीनों के बाद हमारी दुनिया वैसी नहीं रह गई है जैसी इससे पहले थी। बहुत कुछ बदल गया है। एक नई लेकिन दिलचस्प अभिव्यक्ति चलन में आ गई है। न्यू नॉर्मल। कल तक जो हमारे सोच में भी नहीं था, वही अब हमारे लिए सामान्य होता जा रहा है। एक तरह से यह कहें कि जो असामान्य था, वही अब सामान्य हो गया है और जो सामान्य था वह अब कल्पनातीत होता जा रहा है! भला कुछ समय पहले तक किसने सोचा था कि ‘निकलो न बेनकाब, जमाना खराब है’ का असर हम सब पर इतना गहरा हो जाएगा कि नकाब के बिना बाहर निकलने की कल्पना ही दुश्वार हो जाएगी ! और बेनकाब निकलने की तो छोड़िये, नकाब धारण कर भी बाहर जाने में जान सूखने लगेगी ! बड़ी-बड़ी दावतें, शादी-ब्याह, मेल-मिलाप के मौके, सभाएं, महफिलें, सब कुछ मात्र कल्पना में रह जाएगा। रह ही गया है। जीवन के सामान्य काम भी स्थगित होते जा रहे हैं। स्कूल-कॉलेज तक तो बंद पड़े हैं। बेचारे भगवान भी भक्तों के दर्शन को तरस गए हैं। कोई किसी के घर न आता है न जाता है। और जब इतना सब हो रहा है, या नहीं हो रहा है तो जाहिर है कि दुनिया के बहुत सारे कारोबार भी ठप्प पड़े हैं। और इसका असर हम सबकी आर्थिक स्थिति पर पड़ रहा है।
न जाने कितने धंधे ठप्प हो गए हैं। दुकानें हैं लेकिन ग्राहक नहीं हैं। ग्राहक हैं लेकिन उनकी जेबें खाली है। बहुत बड़ी आबादी ऐसी है जिसके लिए दो वक्त की रोटी ही जुटाना भारी पड़ रहा है। इस बड़ी आबादी के लिए और सारी बातें बेमानी हैं। लेकिन दुखद यह है कि इस आबादी की फिक्र शायद किसी को नहीं है। सरकारों ने जैसे सब कुछ भगवान भरोसे छोड़ दिया है। आपको बचना है बच जाओ, मरना है मर जाओ। हमारे पास और भी बहुत सारे काम हैं, तुम्हें बचाने के सिवा। सरकार के किसी काम से यह नहीं लगता कि उसे जनता की फिक्र है। बड़ी-बड़ी बातें खूब हो रही हैं, कब नहीं होती थी। अब भी हो रही हैं, लेकिन जनता पहले भी उपेक्षित थी, अब भी उपेक्षित है। ऐसे में जनता को ही अपनी जान बचाने की जुगत करनी होगी, अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ करना होगा और अपने बचाव के तौर-तरीके समझ विकसित करने होंगे, खुद अपना बचाव करना होगा, जीने की राह निकालनी होगी।
जिस समय में हम जी रहे हैं, वह असामान्य समय है। डर के साये में जीते-जीते हम सब थोड़ा बहुत असामान्य हो गए हैं। हमारा मानसिक स्वास्थ्य बुरी तरह आहत हुआ है। मनुष्य मूलतः सामाजिक प्राणी है और जब उसकी सामाजिकता इस बुरी तरह आहत है तो उसके स्वास्थ्य का डगमगाना अवश्यम्भावी है। ऐसे में हमें ही अपने लिए सामाजिकता की राह भी निकालनी होगी। ऐसी सामाजिकता जिसमें दूरी का निर्वहन भी हो और नजदीकी का सुकून भी हो। कल तक हम इस बारे में सोचते ही नहीं थी। सोचने की जरूरत ही नहीं थी। लेकिन अब जरूरी हो गया है कि हम अपनी-अपनी कैदों से बाहर निकलें, लेकिन सावधानी बरतते हुए। यहां यह कह देना आवश्यक है कि सावधानी बरतना हम भारतीयों की आदत में शुमार नहीं है। हम तो खतरों के खिलाड़ी है। यह बात अब भी चारों तरफ देखने को मिल रही है। हम सब जानते हैं कि सुरक्षा के लिए, अपनी तथा औरों की सुरक्षा के लिए मास्क कितना जरूरी है, लेकिन यह आम मंजर है कि मास्क के साथ भी हम वैसा ही सुलूक कर रहे हैं जैसा हेलमेट के साथ करते हैं। बहुत हुआ तो मास्क गले में लटका लेंगे, लेकिन क्या मजाल है जो उससे हमारा मुंह और नाक ढक जाए! कतार में खड़े होने की वैसे ही हमको आदत नहीं है, और अगर खड़ा होना ही पड़ जाए तो फिर हम एक दूसरे से इस तरह चिपक कर खड़े होते हैं कि मजाल है बीच में से हवा भी गुजर जाए। कोरोना का भय भी हमारी इस आदत का बाल बांका नहीं कर सका है। दुकानों में वही धक्का-मुक्की और पहले मैं का हर मुमकिन प्रयास हमने शुरु कर दिया है। सब्जी वालों के ठेलों पर या किसी डिपार्टमेण्टल स्टोर के बिलिंग काउण्टर पर एक नजर भर डाल कर समझा जा सकता है कि हमें सोशल डिस्टेंसिंग की तनिक भी परवाह नहीं है।
अभी बहुत सारे मंदिर बंद हैं, लेकिन इधर-उधर से धार्मिक सामाजिक उत्सवों की जो खबरें और तस्वीरें आई हैं उनमें भी सुरक्षा मानकों के प्रति हमारी उपेक्षा और अवहेलना ही उजागर हुई है। कॉलोनियों और बड़े स्टोर्स में थर्मल स्कैनिंग की जो शुरुआत हुई थी, दुकानों के बाहर हाथों को सैनिटाइज करने का जो सिलसिला शुरु हुआ था वह अब अतीत हो चुका है। और यह सब तब जब कि संक्रमितों की संख्या हर रोज बढ़ती जा रही है ! इसे क्या कहेंगे ? एक बार फिर कहना जरूरी समझ रहा हूं, अब सरकारों ने तो हमारी चिंता करना बंद कर दिया है। लेकिन क्या खुद हमें अपनी फिक्र नहीं करनी चाहिए ? क्या हमने भी तय कर लिया है कि हम नहीं सुधरेंगे ?
अब वह समय आ गया है जब हमें पूरी सावधानी बरतनी चाहिए। ऐसा करना बहुत कठिन भी नहीं है। मात्र इतना ही तो अपेक्षित है कि हम सामाजिक दूरी का निर्वाह करें, थोड़ी-थोड़ी देर में हाथ वगैरह धोते रहें और मास्क लगाये रहें। क्या हम इतना-सा भी नहीं कर सकते हैं ? अपने लिये न सही, अपने प्रियजन के लिए ही ऐसा कर लें!
सबसे ज्यादा जरूरी है अस्त-व्यस्त हो गई आर्थिक गतिविधियों को फिर से पटरी पर लाना। काम करने के तौर तरीके बदल गए हैं। वर्क फ्रॉम होम या वर्क फ्रॉम एनीव्हेयर अब धीरे-धीरे आम होता जा रहा है। बहुत सारे काम और रोजगार के अवसर समाप्त हो गए है। जिनकी रोजी-रोटी उस तरह के कामों पर टिकी थी, उनकी हालत बहुत खराब है। उनके लिए बहुत कुछ सोचा और किया जाना जरूरी है। इसके लिए स्वयंसेवी संगठनों को आगे आना होगा। अपने-अपने स्तरों पर काम हो भी रहा है लेकिन जो हो रहा है उसका और विस्तार किया जाना जरूरी है। संकट कुछ दिनों या महीनों में खत्म नहीं हो जाने वाला है। उससे हमारी लड़ाई भी लम्बी होगी, अतः उसकी तैयारी जरूरी है। यहीं यह भी समझा जाना जरूरी है कि अगर बहुत सारे काम खत्म या बंद हुए हैं तो बहुत सारे नए काम भी पैदा हुए हैं। जो लोग अपने काम के तौर तरीकों में बदलाव कर सके हैं, वे आज भी बेहतर और सुरक्षित स्थिति में हैं। उनसे सीख लेने की जरूरत है। और इस बात की भी जरूरत है कि सांस्थानिक स्तर पर लोगों को काम के नए अवसरों के लिए प्रशिक्षित किया जाए। यह काम स्वैच्छिक संस्थाएं बखूबी कर सकती हैं। उन्हें आगे आना होगा।
बेशक जीवन थम नहीं सकता। उसे चलना ही है। हम अपने कामों को रोक नहीं सकते। हम हर समय घरों में कैद होकर नहीं रह सकते। लेकिन अपेक्षित सावधानी तो बरत सकते हैं ! मनुष्य की फितरत है कि वह हमेशा यह सोचता है कि अगर कुछ बुरा होना है तो औरों के साथ होगा और अच्छा होना है तो हमारे साथ होगा। लेकिन यह सोचने का अर्थ लापरवाह हो जाना नहीं है। हमें अपनी परवाह करनी ही होगी। अपनी भी और अपनों की भी। इसी में सबका हित निहित है!