पुस्तक समीक्षा: बसंत म्हारी दीठ में (राजस्थानी काव्य संग्रह) कवि: श्री कमल रंगा

समीक्षकः संजय पुरोहित प्रकाशकः कलासन प्रकाशन, बीकानेर

लेखक युवा साहित्यकार है पता – धोबीधोरा, बीकानेर

भाव चैतन्यता की श्रेष्ठ अभिव्यक्ति बन कर सामने आते हैं। विचार और प्रकृति उसे अलंकृत करती है। अर्थ उसके होने के माइने प्रस्तुत करता है। इन सबको करीने से सजाया जाये तो कविता बनती है। कवि जिस भाषा में बोलता, सोचता है उसी में वह अपने विचारों को, भावों को श्रेष्ठ अभिव्यक्ति दे सकता है। अगर राजस्थानी भाषा की बात हो तो कविता का श्रेष्ठ स्वरूप राजस्थानी में आया है। यह राजस्थानी भाषा की समृद्धि का प्रतीक है। राजस्थानी काव्य संग्रह ‘बसंत म्हारी दीठ में‘ से गुजरते हुए मानवीय जीवन की कल्पनाओं के इन्द्रधनुष उभरते दिखे। कवि की सोच का दायरा कितना विस्तृत हो सकता है, उसकी बानगी है श्री कमल रंगा की यह कृति। इससे पहले श्री रंगा की चार कृतियां साहित्यिक परिदृश्य को समृद्ध कर चुकी हैं। राजस्थानी भाषा मान्यता संघर्ष के पुरोधा और अत्यन्त सक्रिय साहित्यकार व आयोजक के रूप में उनका योगदान अतुलनीय है। शीर्ष पुरस्कारों से समादृत श्री कमल रंगा की यह कृति अनुपम है। अपनी बात में वह यह उद्घाटित करते हैं, ‘कविता म्हैं तेवड़‘र नी मांड सकूं। कविता आवै है, म्हनै बकारै है। म्हैं उणसूं बंतळ करूं अर उणरी चुनौती नै स्वीकारूं। कविता अर कवि रै बीचै रौ औ गनौ साव आपू-आपरौ हुवै।‘ चार भागों में श्रेणीबद्ध ये कविताएं पाठक को अलग अलग भाव सरिता की सैर कराती है। पहले भाग ‘खुद रै आंगणैं नै‘ में क्षण भंगुर शरीर की मृत्युलोक की संक्षिप्त यात्रा को प्रभावी स्वरूप में प्रस्तुत किया गया है। ‘देही‘ शीर्षक से यह सिलसिला शुरू होता है, ‘हरी टांस/काची सांगरी री गळाई/देही/धोरां मझ/मुट्ठी रेत री गळाई/देही/झड़ जावे चाणचक/माटी रै मारग/सूकै खोखै रै उनमान/देही।‘ स्व की तलाश, स्व को तराशते हुए अपने अस्तित्व को परछाया के प्रभाव से मुक्त रखने की हूक के साथ वे कहते हैं, ‘लांबी पड़छिब में/गुम हुय जावै है/अलेखूं पड़छियां/म्हैं सोध रैयौ हूं/इणी गुम-झुंड में/पड़छिब खुद री/पण/नीं पिछाण पायौ अजेस लग/अबै तो चावूं हूं/पड़छिब अैड़ी/जिकी गुम नीं हुवै/किणी ई पड़छिब में।‘‘थारौ नांव‘शीर्षक से कविता में कवि किसी अदृश्य प्रभाव से प्रश्न करते हुए पूछता है ,‘नीं जाणै कद/अर क्यूं/मांड्यौ हौ म्हैं/थारौ नांव…इसी से आगे बढ़ते हुए ओळूं विरासत‘में निःछल निर्मल अतीत की स्मृतियों का स्मरण है तो ‘मा‘सा’, ‘म्हारै कनै है मा‘सा,‘बियां रा बियां मा‘सा’ में वात्सल्य देवी को नमन किया गया है। ‘असल वसीयत‘इस काव्य संग्रह की उत्कृष्ट रचना है जिसमें पिता की मृत्यू के उपरान्त उनकी पेटी से निकले एक पत्र में यह लिखा पाया जाता है कि ‘भेळा रैया’, ‘म्हारी वसीयतः ..भेळा रैया…रिस्ता नै जीया..मिनख बण‘र..आ ईज है म्हारी/असल वसीयत’ । बसंत के आगमन से प्रकृति हिलोरे मारने लगती है। संग्रह के शीर्षक वाली रचना ‘बसंत म्हारी दीठ में’ प्रकृति का रंग लेकर इंसान की ललक, उसकी हसरतें बेहतरीन साम्य प्रस्तुत करती है। संग्रह के दूसरे भाग ‘मांडण मतै‘एकल शीर्षक से कविताओं का समूह है। ‘सबद’ शीर्षक से ग्यारह रचनाएं हैं। सभी एक से बढ़कर एक। इनमें आध्यात्म है। युग बोध है। शब्दों के कविता बनने का मार्ग है। अंतस की पीड़ा है। शब्दों की अपनी हसरतें हैं। इसी भाग में ‘सुपनौ’ शीर्षक से लगातार दस कविताएं हैं। कम शब्दों में गहरे अर्थ वाली ये कविताएं इच्छाओं को मुक्त करते हुए उन्हे विचारों के विविध आयाम दिये गये हैं। इसी प्रकार ‘ओळू’ शीर्षक की तीन रचनाओं और कमोबेश इसी भावभूमि पर अन्य कविताओं के माध्यम से स्मृतियों को समर्पण है। कम शब्दों में गहरी बातें। राजस्थानी भाषा में कवि की प्रकृति से जुगलबंदी बिल्कुल अलहदा इन्द्रधनुष सृजित करती है। ‘म्हारै चांद सूं’ भाग में यही इन्द्रधनुष अपने चटख रंगों के साथ शब्दों के माईने तय करता दृष्टव्य होता है। इनमें ‘दरखत’  है। रेत है। नदी है। रेत का समन्दर है। चांद है। कवि की कल्पना का ये मनोरम खण्ड है जो पाठक को नवीन अर्थों से विस्मित करता है। इस भाग की एक कविता तो मन मोह लेती है, ‘सुणियौ है/आभै री धरती/हुवै कुबध/चैफेर फैलियौ प्रदूसण/धरती घूमतै चांद रै ओळै-दोळैं/आ सुणी-अणसुणी/करता रैवां हां/थे अर म्हे/पण/बरसां पछै/म्हैं थावस सूं/निरख्यौ हौ चांद/अमावस रै पैलड़ै दिन/पूनम रै आगलै दिन/हौ बियां रौ बियां चांद/म्हारै वास्तै/म्हैं कीन्ही ही मून बंतळ/एक फिलोसोफर री गळाई/चांद सूं/हां, म्हारै चांद सूं/बियां री बियां।‘ इस काव्य संग्रह का चैथा भाग ‘सागी रूप-सरूप में’ ‘आभौ’  शीर्षक से पांच कविताएं पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि कवि संवेदना की धरती पर शब्दों के नये चितराम खड़े कर रहा है। आभै लग पूगूं/करतौ जतन नीं थाकूं/पण/जाणै क्यूं आभौ/ऊंचै अर ऊंचै बधग्यौ….।‘या फिर ‘आभै री जाजम/बिछी बाजी सतरंज/काळी-धोळी गोट्यां/चाल आपौ-आपरी/होड जीतण-हारण री/नीं दीसै/बै हाथ…।‘इसी तारतम्य के साथ ‘हवा‘शीर्षक की चार, ‘अगन’, ‘पाणी’ व ‘धरती’ शीर्षक से पांच छोटी कविताएं बड़े अर्थ की ओर इशारा करती है। ‘मेह री छांट/रळ-मिळ जावै/धरती रै अंतस/कांई आभै सूं/टुर ब्हीर हुयी/बरखा छांट री/जातरा रौ/औ ईज है असल मुकाम..।‘संग्रह में अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग भी किये गये हैं।‘कैमिस्ट्री’, ‘फिलाॅसाॅफर ‘, ‘डिक्शनरी‘ आदि। रचना की प्रभावशीलता बढ़ाते हैं। इन अट्ठयासी कविताओं में श्री रंगा की अपनी विशिष्ट शैली है। उनका अनुभव प्रतिबिम्बित होता अनुभूत होता है। कथ्य में उन्हे महारथ है तो शिल्प की दृष्टि से अधिकांश रचनाएं बेजोड़ हैं। उनके अपने बिम्ब हैं, प्रतीक हैं, उनको परोटने का अपना सलीका, तरीका है। समकालीन राजस्थानी कविता के एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में उनकी ख्याति की पुष्टि इस कविता संग्रह की कविताओं को पढ़कर की जा सकती है। विशद् अनुभव अवधि की घट्टी पर विचारों के निरन्तर मंथन से उपजी इन कविताओं के संग्रह के लिये श्री कमल रंगा को बधाई दी जा सकती है। 

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