डा. चंचला पाठक
लेखिका कवयित्री है।
पता- नागणेची मन्दिर के पास] बीकानेर
मैंजबछूटरही धरती पर डोभे जा रहे धान की मोरियों से लिपट जाना चाहती हूँ अपने सबसे मुलायम रूप में है अभी माटी अकुलाहट से भरी है गाभ ताड़ के पतों पर लटकी है बया की गृहस्थी पत्तों पर बूंद-बूंद बारिश भी आमों से होकर गुजरी आर्द्रा ड्योढ़ी पर के सुग्गे की चोंच में फँसी है राम राम रटते को कराहती सी आवाज़ में सुनती है हवा और भारी मन बहती हुई निकल पड़ती है अपनी अंतहीन यात्रा पर मैं ठीक उसी वक्त तुम्हें भींच लेती हूँ अपने कलेजे से तुम रूई के फाहे सी नर्म और मुलायम होती जाती हो मैं धरती को और सुन पा रही हूँ रजस्वला होती हुई मैं पहचानने लगी हूँ धरती की मूल-गंध पावस हमारी देह का सोम-सेतु सा उतरता है निःशब्द आर्द्रा की महक भर रही कोशिकाओं में कि उतर रहा समुद्र सावन-भादो से नदियों कछारों सरों सरोवरों में कीचड़ होती हुई धरती शुचिता के मर्म का लय साधती है कि परिपूत रहे यह सृष्टि तुम कहते हो मैं तो रजस्वला हूँ! जबलौटरहेहोतुम उस पार चहल-पहल कुछ अधिक गूंजती है इधर की चुप्पियाँ के सारे मार्ग इस गहरे कूप के जगत पर आ बैठे हैं प्रतिध्वनियों के अवाक् कितनें करुण हैं रक्त मांस मज्जा वाक् अवाक् सबसे निथर कर क्षर रहा प्राण जा रहा उस पार ये भी रेशमी धागे पर धवल आकाश ही रंथी बन उतर रहा कल-कल की ध्वनि सुन रहे न तुम प्रयाग से छूट रही एक नदी का विलाप है ये जो नहीं लौटती कभी कोई विकल्प तक नहीं देती प्रकट-अप्रकट , यात्रा-यति अथवा जन्म-मृत्यु का तर्पणमें बुदबुदाए गए मंत्र नेत्र से जागृत होने थे उद्बुध नहीं हुईं प्रेतशिलाएँ मातृकाएँ सहज नहीं प्रवेश करती तुम्हारे रोमकूपों में कहाँ हुआ भला लोमहर्ष सूर्य के आलोक में जरता है एक पथ लौट रहे हो तुम और मँड रही पगडंडी 'संक्रांति' इस आलाप में बहुत करूणा है... क्यायहवहीसमयरहाहोगा जब माँ ने बदली होगी करवट इक नन्हीं सी प्रसव वेदना पर और उसके गर्भ में मैंने भी हिरण्यमय झिल्ली में बँधा समुद्र हमारी धड़कनों में हिलोर लिया होगा न क्या तब भी मैं अभी जैसी हल्की नींद में थी शहद के कंचे जैसी टूटी है नींद हिलोर जो अभी उठी है माँ को भी उठी होगी वहाँॽ हाँ, छन्दों के आकाश वर्णों के मध्य की रिक्तियाँ ही तो हैं कई बार निरूत्तर मन को कुछ भी नहीं चाहिए शून्य के अतिरिक्त अभिधामें टूटे हुए मन का झूठ है तुम सच पकड़ने की कोशिश में चलना कुछ दूर साथ मैं सारे अभिनय रोपती चलूँगी ज्यूँ भादो में धान बेलौस हसूँ तो समझ मत जाना सब बात मेरे मन की तुम अक्सर मेरी हँसी की छौंक का आस्वाद जान लेने वाले हो किसी निविड़ एकांत में इसे अपनी उदासी की लक्षणा में ढालकर नींदें मत बहाना मेरी भी नींद भाप बनकर उड़ जाएगी हमदोनों हैं न इस बात में सारी की सारी शब्द शक्तियाँ विराम पाती हैं और, इसका कोई अवसान भी नहीं।