डायरी अंश

डाॅ. प्रमोद कुमार चमोली

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार है। पता – राधास्वामी सत्संग भवन के सामने, गली नं.-2,अंबेडकर काॅलोनी, बीकानेर

दिनांकः23.03.2020 हिसाब से तो राजस्थान में शटडाउन तो दो दिन पहले से ही था पर मुझे आज से महसूस हुआ। आज सोमवार था हिसाब से तो आज आॅफिस जाने की तैयारी करनी थी पर आज ऐसा नहीं था। अपनी आदत के मुताबिक सुबह रोज किए जाने वाले कार्यों से फारिग होकर। नहा-धोकर नाश्ते के इंतजार में अखबार लिए बैठा था। अखबार में जनता कफ्र्यु की पाॅजेटिव और नेगेटिव कुछ फोटो लगी थी।

कल कुछ वीडियो वायरल हो रहे थे। जिसमें जनता कफ्र्यु को तोड़ने वालों से पुलिस शक्ति से पेश आ रही थी। एक वीडियों में बातचीत में यह सुनने में आया मंदिर जाना तो जरूरी है। मुझे यह नहीं समझ आता है कि मंदिर जाना धार्मिक आस्था है या दिखावा। क्या किसी को दिखाने के लिए मंदिर जाया जाता है ? धर्म और पूजा पद्धति दोनो अलग-अलग बातें हैं। समस्या यह है कि पूजा पद्धति को धर्म मान लिया जाता है। पूजा पद्धति आपके विश्वास को पुख्ता करती है। यह किसी के धार्मिक होने का प्रमाण नहीं बन सकती। दरअस्ल पूरे देष में धर्म का मर्म गड़बड़ा रहा है। मुझे लगता है कि धर्म बहुत निजी मामला होता है। मुझे लगता है कि आस्था और धर्म भी बहुत अलग-अलग हैं। वैसे आस्था इतनी हल्की वस्तु नहीं जितनी समझ ली जाती है। मेरी नजर में यह एक सत्वृत्ति है। आपकी आस्था किसी में भी हो सकती है। इसमें फरेब या ढोंग के लिए कोई जगह नहीं हैं। आस्था और अंधविश्वास के बीच एक पतली सी रेखा है वह विवके की रेखा है। आस्था जब विवेकहीन हो जाए तो अंधविश्वास में बदलने लगती है। दिखाव करने लगती है। परिणाम यह कि श्रेश्ठत सिद्ध करने के लिए कम्पीटीषन होने लगता है। फिर तर्क-वितर्क से अपनी श्रेश्ठता सिद्ध होगी। ऐसा होने से घृणा पनपेगी। ऐसे में आस्था संकुचित होकर अपने धर्म, अपनी जाति, अपने संप्रदाय, अपने प्रदेश और अंत में केवल अपने तक सीमित हो जाएगी। इस पूरी प्रक्रिया में धर्म कहीं पीछे छूट जाता है।

बहरहाल आज का पूरा दिन था। रात को काफी पढ़ चुका था पढ़ते-पढ़ते रात के दो बज गए थे। पूरे दिन के लिए किताब थी। मालचंदजी की किताब ‘‘स्त्री का मनुश्यत्व। किताब पूरी होने का कहां नाम ले रही थी। एक साथ पढ़ना भी नहीं चाहता था। आनन्द से सरोबार था, भाषा के मोहक वातावरण ने कुछ लुभा लिया था। सीने पर किताब रखकर सोचने लगा। कुछ लिखने की प्रेरणा मन में जागने लगी। ऐसा लगा कि कुछ लिखना चाहिए। आजकल पैन-काॅपी में लिखना बंद कर दिया। अपना लैपटाॅप निकाला और अगुंलियां की-बोर्ड पर जुंबिश करने लगी। जो लिखा गया वह यह था।        

पहली बार  इस पुस्तक से परिचय फेसबुक के माध्यम से हुआ था। पहले परिचय में ही खैर, जो भी हो इस किताब को पढ़ने की इच्छा बलवती थी। समयाभाव के कारण इस किताब से बाबस्ता नहीं हो पा रहा था। तभी एक दिन राजकीय यात्रा पर उदयपुर गया तो वहां पुस्तक मेंला चल रहा था। इस पुस्तक मेले में वाग्देवी प्रकाशन की स्टाॅल पर पड़ी इस पुस्तक को खरीदा। चूंकि उस रात्रि को उदयपुर ही रहना था सो रात्रि को सोने से पहले इस पुस्तक को पलटते हुए अपनी रंगमंचीय रुचि और जिज्ञासा के चलते एक आलेख बीकानेरः कुछ रंग बरस को पढ़ लिया अगले दिन के थकाऊ व्यस्तता और शाम को पुनः लौटने की जल्दबाजी के चलते इस पुस्तक को बैग में रख दिया गया। तमाम तरह की झूठी व्यस्तताओं के चलते मैं अलमारी में पड़ी इस पुस्तक को तकता रहा लेकिन पढ़ने का संयोग फिर भी नहीं बन पा रहा था। खैर, कोरोना के कहर से जनता कफ्र्यू की बात चली तो अलमारी से कुछ पुस्तकों को निकाला जो पढ़ने से रह गई थी या आधी-अधूरी पढ़ी गई थी। 

जनता कफ्र्यू में सायं पांच बजे के बाद पुस्तक को पढ़ना शुरू किया जो रात दो बजे तक जारी रहा। नींद का दबाब नहीं था लेकिन शरीर को आराम देने के लिहाज से अंतिम चार आलेख छोड़ते हुए सो गया। रात भर नींद में सोने का जतन करने से पहले इसके शीर्षक पर कुछ अजीब सा विरोधाभास सा मन में जागा था। कुछ द्वन्द्व सा मन में उठा था। द्वन्द्व ये था कि पहला कि ये मनुश्यत्व आखिर है क्या ? अगर यह है भी तो क्या यह लिंगभेद के अनुसार अलग होगा ? क्योंकि मनुष्य शब्द तो अपने आप में उभयलिंगि या यह कह दूं कि लिंग निरपेक्ष है। जो भी हो आज सुबह कम्पलीट लाॅक डाउन के कारण कार्यालय जाना नहीं था। शेष बचे को पूर्ण करने की तीव्र उत्कंठा के चलते सुबह ही पुस्तक को लेकर बैठ गया और 11 बजे पुस्तक को पूरा पढ़ लिया। पढ़ने के बाद लेखक से बात करने की इच्छा हो आई। मालचंद जी को फोन मिलाया गया तो शायद उन्होंने मेरे नंबर को किसी और का नंबर समझ कर हैलो कहा तो मेरे समझ में आ गया भाईसाहब ने पहचाना नहीं हैं। मैंने तुरंत ही अपना नाम जाहिर कर दिया। खैर, इन बातों के बारे में अलग से कभी चर्चा की जाएगी। बात स्त्री के मनुश्यत्व की है।

स्त्री के मनुश्यत्व पुस्तक से पाठ दर पाठ गुजरते हुए प्रश्न मन में उठा कि इसे किस विधा की पुस्तक के दायरे में रखा जा सकता है? ये प्रश्न मेरा है, तो इस प्रश्न के उठने के कारण को स्पष्ट भी, मुझे ही करना होगा। मेरा दावा तो नहीं पर मुझ जैसा अबोध पाठक को इस पुस्तक में कथा, संस्मरण, आलेख, ंआलोचनात्मक, नाट्यलोचना, निबन्ध और ललित निबन्ध जैसी विधाओं के अनुभव प्राप्त हुए। इसलिए ही शायद इस पुस्तक के कवर पर शीर्षक के नीचे सामयिक साहित्य विमर्श लिख दिया गया है। 

इस पुस्तक की शुरूआती आलेख, पुस्तक का शीर्षक बना आलेख ‘स्त्री का मनुश्यत्व है’ इस शीर्षक से मेरी असहमतियां अपनी जगह हैं लेकिन इस आलेख से गुजरते हुए ऐसा जरूर महसुस होता है कि शरद बाबू के उपन्यास ‘चरित्रहीन’ पुनः पढ़ा जाए। ऐसा महसूस होने को मैं आलेख की सफलता ही कहूंगा। दरअसल किरणमयी के बहाने लेखक ने कथा की उपरी स्थूलता के भीतर किरणमयी के चरित्र को पहचानते हुए घोषित किया है कि ‘‘असल बात यह है कि उपेन्द्र की प्रति उसका प्रेम उसे नारीत्व की अनुभूति में ले जाता है जिससे वह अब तक वंचित चली आ रही थी। क्या ऐसा नहीं लगता कि किरणमयी के माध्यम  से शरत् बाबू हमें यह दिखा रहे हों कि प्रेम ही स्त्री का मनुश्यत्व है और बिना मनुश्यत्व के किसी भी मूल्य की कल्पना व्यर्थ है। किरणमयी जानती है, उपेन्द्र के साथ उसके प्रेम में कोई प्राप्तव्य नहीं है। वह अपनी पत्नी पशुबहु से अगाध प्रेम करता है।’’ 

किरणमयी चरित्र से लेखक का परिचय किश्शोरवय में उत्पन्न स्थूल प्रेम के कारण हुआ लेकिन अब उसके लिए किरणमयी लेखकीय जिज्ञासाओं का प्रतिमान हो सम्पूर्ण लेखकीय चेतना का विशाल फलक हो गया। यह चरित्र बतलाते हुए कहता है कि ‘‘शरत् बाबू ने तो तुम पर इतना ही उपकार किया न कि मुझसे तुम्हारी भेंट करवा दी। बाद की हर भेंट करने तो तुम खद ही चलकर मेरे पास आए हो। अपनी इन मुलाकातों में तुमने भी मुझे रचा है, मुझमें रंग भरे हैं। मैं बुद्धिमति हूं, तुम्हीं संसार में कहते फिरते हो और तुम्हें ही मेरी बुद्धि पर भरोसा नहीं!’’ कहानी के पुनर्पाठ का रचनात्मक उत्स लेखक की उस आस्था का परिपाक जो वर्षों से उसने उस चरित्र के साथ परकाया प्रवेष करते हुए जिया है। बहरहाल आज के लिए इतना ही।

दिनांकः 24.03.2020

सुबह थोड़ा देर से उठा था। वैसे सारे सामाचार तो रात को ही मिल जाते हैं। फिर भी अखबार देखने की इच्छा हो ही जाती है। राजस्थान में आज से निजी वाहनों के चलने पर रोक लगा दी गई। कोरोना मरीज की संख्या बढ़कर 32 हो गई है। भीलवाड़ा और झुंझनू जिले सबसे ज्यादा कोरोना के मामले में बेहद संवेदनशील हो गए। यह खुशी की बात है कि बीकानेर में आज तक कोई भी कोरोना पाॅजेटिव नहीं है। बाजार बंद है। लोग घरों में सब कुछ रूक गया है। मंदिर भी बंद हो गए हैं। ऐसी सब जगह बंद करदी गई है जहां लोग एकत्रित हो सकते है।

सब रूक जाना ठीक है पर संवेदनशीलता का रूक जाना बहुत घातक होता है। आज के अखबार की एक खबर मु्झे विचलित कर दिया है। खबर यह थी कि एक महिला को नागपुर से पटना जाना था। उसका आरक्षण नागपुर से बागमति एक्सप्रैस में था। गलती से वह मैसुर-जयपुर एक्सपैस में बैठ गई और सुबह जयपुर उतर गई। जयपुर स्टेशन पर आरपीएफ द्वारा पूछताछ के दौरान पता लगा कि गलती से यहां पहुंच गई है। उसके जयपुर और कोटा के रिश्तेदारों से बात की गई। रिश्तेदारों ने अपने घर आने से मना कर दिया। साधन सब बंद हो चुके हैं। उसे उसके गंतव्य तक नहीं पहुंचाया जा सकता। रेलवे अधिकारियों ने उसके भाई से बात की तो वह नागपुर से मोटर साईकिल पर उसे लेने के लिए रवाना हुआ। नागपुर से जयपुर की दूरी 980 किलोमीटर है। कब तक भाई पहुंचेगा? किन स्थितियों का सामना करता पहुंचेगा। फिर अपने चार साल के बच्चे के साथ बाईक पर बैठकर ये अपने भाई के साथ नागपुर कैसे पहुंचेगी। उफ! यह सोच कर रूह कांपने लगती है। संवेदनाएं खत्म नहीं हुई रेलवे अधिकारियों ने स्टेशन के रेस्टरूम में उसे ठहराया हुआ है और उसके खान-पान की व्यवस्था कर दी है।

अपने दैनिक नित्यकर्म से निवृत्त होने के बाद मालचंद जी की पुस्तक स्त्री का मनुश्यत्व फिर पढना शुरू किया। एक-एक करके आलेखों से गुजरता गया। ‘पाठकीय प्रतिश्रुति का दस्तावेज शिवदत्त जी की पुस्तक ‘स्मृतियों का स्मगलर’ की भूमिका हेतु लिखा गया आलेख है। इस आलेख को पढ़कर यह ज्ञात होता है कि शिवदत्त जी ‘निर्मल वर्मा’ के लेखन से दीवानगी से हद से पार का प्रेम है। इस प्रेम को जानने के लिए उत्कंठा तीव्र हो गई। मालचंदजी से शिवदत्तजी का नम्बर लेकर बात-चीत की । उनसे बातचीत करने में ऐसा नहीं लगा कि पहली बार बात की जा रही है। थोड़ी सी बातचीत के बाद ज्ञात हुआ कि जनाब का गजब का सेंस आॅफ हयुम्र है। किताब के सभी अध्याय पढ़ चुका था।  दिन के दो बज गए। खाना खाने का बाद किताब के कुछ नोट लिए। किताब है बड़ी दिलचस्प है। स्त्री के मनुश्यत्व को पढ़ते हुए चार बजे तक इतना ही लिख पाया कि- इस पुस्तक का दूसरा आलेख ‘महारमण के उस पार’ है यह आलेख रवीन्द्रनाथ टेगोर कृत गीतांजली का गीति अनुवाद जिसे राजस्थानी में स्वयं लेखक द्वारा किया गया उसी के माध्यम से अनुवाद की महत्ता को प्रतिस्थापित करता है। लेखक का अनुवाद के विषय में यह कहना कि  ‘‘सांस्कृतिक पारस्परिकता के विस्तार की दृष्टि से अनुवाद एक ऐसा जरूरी कर्म है कि कई बार इसके अच्छे-बुरे होने के प्रष्न तक को गौण कर देना पड़ता है।’’ वे इस आलेख के माध्यम से केवल अनुवाद की पैरवी ही नहीं करते वरन् अनुवाद के अच्छे होने के लिए अनुवादक को भाषा के केवल कार्यकारी ज्ञान के अलावा रोजमर्रा की अनुदित की जाने वाली भाषा की रोजमर्रा की जिन्दगी में काम आने वाली भाषा का ज्ञान होना जरूरी मानते हैं। अनुवाद केवल अनुवाद ही नहीं पुनःसर्जन भी कहा जा सकता। इस आलेख में अनुवाद की सीमाएं और रवीन्द्रनाथ के गीताजंली के स्वयं किए अनुवाद के उदाहरण के द्वारा लेखक अनुवाद के समय ग्रहण और त्याग की बातों पर चर्चा एक अनुवादक के लिए सहायक हो सकती है। लेखक ने भारतीय सन्दर्भ में अनुवाद के महत्व का प्रतिपाद करते हुए अनुवाद की चुनौती को कुछ इस तरह व्यक्त किया है-‘‘ भारत जैसे विपुल सांस्कृतिक विविधताओं वाले देश में इस कार्य की महत्ता और भी बढ़ जाती है क्योंकि इसकी अनेकानेक भाषाओं की रचनाओं के बीच आवजाही करने वाले अनुवादक का एक गुरुत्तर दायित्व यह भी हो जाता है कि इन विविधताओं में जो ऐक्य है, सामान्य और सर्वव्यापी, जिसे हम भारतीय एकात्मता भी कह सकते हैं- वह उसकी अपनी अक्षमताओं के पीछे ओझल न हो जाए। निश्चय ही मैं उस एकात्मता की बात कर रहा हूं जो इस विपुल विविधता का विराट नेपथ्य है, एक समग्र जीवन दृष्टि।’’ आज की समसामयिक परिस्थितियों में जब विविधता पूर्ण संस्कृति में ऐक्य के स्वाभाव को एक जैसा बना देने का विपर्यासी कार्य अपने चरम पर है। हम भारतीय एक दूसरे की संस्कृति, रीतिरिवाज और खान-पान के प्रति उदारमना नहीं हैं। गाहे-बगाहे हम किसी की सांस्कृतिक विभिन्नता को चुटुकलों के रूप में परोसने लगते हैं। संस्कृतियों का अतिक्रमण करते महान भारतीय मूल्य महारमण के उस पार ले जाने के पोषण के लिए अनुवाद की भूमिका असंदिग्ध है।

बहरहाल मानसरोवर की तलाश करता लेखक का हंस अपने अगले आलेख भारतीय पुरा के जीवन में प्रवेष कर मूल्य की तलाश करता नजर आता है। लेखक असमाप्य कविता’ का रचाव करते हुए कहते हैं कि ‘‘अस्तु, पुराण जीवन की समझ बढ़ाने, ऐसी समझ़, जहां तक तथ्य की रसाई नहीं होती, का ही एक जरीया हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में, जीवन को समझने का एक तर्कातीत उपक्रम है। इस उपक्रम में बुद्धि ;प्दजमससमबजद्ध से ज्यादा वह अंतर्मेघा ;ॅपेकवउद्ध हमारा मार्ग प्रषस्त करती है जिसे पूरे तौर पर व्याख्यायित करना आज भी बुद्धि के लिए टेढी खीर है।’’ यहां लेखक द्वारा बुद्धि और अंतर्मेघा में से द्वितीय को दिया गया वेटेज सही जान पड़ता है। दरअसल इन शब्दों को समझने की आवश्यकता है। सामन्यतः बुद्धि को ही सर्वश्रेष्ठ मान लिया जाता है। लेखक ने यहां इस बात को शायद यह जेहन में रख कर किया हो कि बुद्धि अपने आप को सर्वश्रेष्ठ मानते हुए यह कहती है कि मैं सभी कुछ जानती हूं लेकिन अन्तर्मेघा यह कहती कि अभी भी कुछ जानना शेष है। बुद्धि यह समझती की क्या कहा जा रहा है लेकिन अन्तर्मेघा यह जानना चाहती है कि इसमें से क्या कहना शेष रह गया है। अस्तु, एक शरीर में दोनो के साथ रहते हुए भी ये अंतर उसे द्वैत की ओर धकेलते हैं। बुद्धि जिसे ढकोसला तर्कधारित सोच के साथ जहां उसे नकारती है वहीं मेघा तर्क से परे हट कर नई खोज की कोशिश जारी रखती है। यह कि पुराना सब त्याज्य हमारी बुद्धि का आग्रह है। तभी लेखक अपनी मेघा पुराकाव्य को समझता है इसे उसकी धार्मिक आस्था से जोड़ देना एक सरल निरूपण हो सकता है। इस आलेख में अपनी लेखकीय ईमानदारी को रखते हुए पुराण वेत्ता देवदत्त पटनायक की कृति ‘मिथ-मिथ्या’ से प्रेरित और समृद्ध होने के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता है।  

रात्रि के 8.00 बज गए। देष के प्रधानमंत्री टीवी के माध्यम से जनता से मुखातिब थे। उन्होंने घोषणा कर दी की आज रात 12 बजे से पूरे देश में लाॅक डाउन हो जाएगा। जो जहां वह वहीं पर रहे। खैर, हम तो पहले से ही लाॅक डाउन में थे इसलिए कोई खास फर्क पड़ना नहीं था। इसके भोजन को उदरस्थ कर फिर उसी पुस्तक को लेकर बैठ गया। सारे आलेख पढ़ चुका था। एक-एक आलेख अपने आप में साहित्यिक चिंतन की अद्भुत परिणति था। गद्य का इतना सुन्दर सौन्दर्य और संयोजन बहुत ही विरल होता जा रहा है। इन आलेखों से गुजरते हुए जो-जो महसूस किया उसे लिख लिया था जो इस प्रकार है-

मालचंदजी की लेखकीय निष्ठा ने उनके जीवन को कितना प्रभावित किया है कितने कष्टों से वे इस लेखकीय निष्ठा को निभा रहे उनके रचाव में कहीं कुछ ऐसा नजर नहीं आता। लेकिन जीवनगत दुरूहता को वे शमशेर बहादुर सिंह की कविताओं में तलाश करते हुए रच देते हैं ‘जन्मों को इसी तरह गति मिलती है’। कवि के दुरूह जीवन में दुःख के गीत ही तो होते हैं। वैसे तो जीवन में दुःख ही शाश्वत है, सुख तो क्षणिक आवेग मात्र है। ऐसे में जब दुःख जीवन राग है तो उसमें दुरूहता होना लाजिमी भी है। कवि शमशेर के बारे में लेखक का यह कहना कि शमशेर को सबसे दुरूह कवि कहा जाता है। 

शमशेर बहादुर सिंह के बारे में वे लिखते हैं कि ‘‘एक कवि के बड़प्पन की सबसे बड़ी कसौटी कदाचित् यही होती है कि वह दुःख के साथ अपनी भाषा में क्या बर्ताव करता है। इस बर्ताव में ही उसके कवित्व की वह सिद्धि अन्तर्निहित होती है, जो स्वयं उसकी भाषा को अभिव्यक्ति के ऐसे अपूर्व सोपानों पर ले-जा खड़ा करती है कि वह कवि अद्वितीय नजर आने लगता। दरअसल जटिलता जीवन का स्वाभाव है उसे दूर रहने की कोशिश करते हुए भी वह जटिल ही रहती है। लेकिन यह भी सही है कि शमशेर की कविताएं जितनी पढ़ी जाएंगी उनका उतना ही सार सामने आता जाएगा। जो जितना जटिल होता है वह समझने पर उतना ही सरल हो जाता है। इस आलेख के लिए लेखक ने शमशेर को कितना पढ़ा और गुना होगा तब कहीं जाकर यह आलेख बना होगा। इस आलेख में एक आलोचक के रूप में मालचंदजी की ईमानदार कोशिश की है। इस तरल आलेख को पढ़कर लेखक की भाषा में यही कहा जा सकता है कि ‘‘कवि होने का यह ‘कटु तिक्त’ हलाहल पीते-पचाते शमशेर ने हिन्दी कविता के नभ में इन्द्रधनुषी वितान रचे, जिसका सचमुच कोई सानी नहीं।’’ 

इस संग्रह का अगला आलेख बीकानेर की कवियित्रि चंचला पाठक के काव्य संग्रह ‘सुनो सूत्रधार तुम भी’ की भूमिका हेतु अथवा विमोचन के समय में पढ़ने हेतु लिखा गया पर्चा हो। सामन्यतः इस तरह के आलेखों में हौसला-अफजाई ही मुख्य हेतु होता है लेकिन इस आलेख को पढ़कर ऐसा लगता है कि मालचंद जी का भीतर का पूर्ण कवि कलम की नोक पर उतर कर भूमिका लिख रहा हो। इस आलेख की ये पंक्तियां इस ओर इशारे के लिए काफी हैं-‘‘मुझे इन कविताओं से गुजरते हुए यह महसूस करके खुशी मिलती रही की इनकी खोज, इनका गंतव्य भी अपनी तात्त्विक जड़ों मे प्रेम ही है। रूप का थोडा अनगढपन काव्याभास की मांग जरूर रखता है, लेकिन प्रतीतियों की समृद्धि चंचला पाठक के चित्तन्मन में इतनी है कि कहा जाना चाहिए–श्षी  इज एवरी इंच बल्कि सेंटीमीटर ए…पोएट।’’ 

इस पुस्तक में लिए गए आलेखों की समयावधि शायद गत पच्चीस से तीस वर्षों के मध्य की होनी चाहिए लेकिन इनकी प्रासांगिकता में कोई तात्कालिकता दिखलाई नहीं देना यह स्पष्ट करता लेखक अभिप्राय शुद्ध साहित्य से है और साहित्य की उत्कृष्ठता के लिए वह बराबर प्रयासरत है। बीकानेर के सुप्रसिद्ध शायर अजीज आजाद की हिन्दी कविताओं की पुस्तक  ‘हवा और हवा के बीच’ के लिए मार्मिक सादगी की मिसाल’ शीर्षक से लिखा आलेख अपने शीर्षक से ही प्रभावित कर जाता है। ‘सादगी’ शब्द अपने आप एक धवल सी आभा लिए सदैव मेरे समक्ष खड़ा रहता है लेकिन इसके आगे मार्मिक शब्द के प्रयोग ने मुझे इस धवल आभा से इत्तर सोचने को मजबूर कर दिया है। मैं अपनी बुद्धि और समस्त मेघा का प्रयोग कर इस शब्द को चित्र के माध्यम से समझने का प्रयास करता हूं तो मुझे ये सादगी का धवल रूप मिट्टी से जुड़ा नजर आता है। सादगी के साथ यह प्रयोग अपने आप में अनूठा है। इसका अभिधेय अर्थ निकालना शायद जल्दबाजी होगी। लेकिन इसकी लक्षणा और व्यंजना को समझने के लिए पूरे आलेख पर गौर करना आवश्यक हो जाता है। इस आलेख को पढ़कर ऐसा लगता है कि मालचंद जी अपने समकालीन शायर की हिन्दी में आने का स्वागत करते है। 

इस पुस्तक में इस आलेख के अलावा अन्य 16 आलेख है बकौल लेखक ये आलेख अलग-अलग समय में लिखे गए हैं। जो किसी पुस्तक की भूमिका, किसी नाटक की आलोचनात्मक व्याख्या इत्यादि हैं। इन सबसे गुजरते हुए आप लेखक के गद्य कौशल से विस्मित हुए बिना नहीं रह सकते। इस पुस्तक पर सम्पूर्ण पाठकीय टीप एक विस्तृत आलेख की मांग करती है। संभव हुआ तो कभी फिर आपके समक्ष रखूंगा। लेकिन चलते-चलते इतना जरूर कहूंगा कि इसके आलेख समकालीन साहित्य के महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं। जिसे साहित्य के विद्यार्थियों और रसिकों के द्वारा पढ़ा जाना चाहिए।

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