प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा
लेखक आलोचक एवं वरिष्ठ साहित्यकार है। पता – कुलानुषासक एवं हिन्दी विभागाध्यक्ष विक्रम विष्वविद्यालय उज्जैन (म.प्र)
भारत की सुदीर्घ ज्ञान परम्परा के विलक्षण व्यक्तित्व आचार्य अभिनव गुप्तपाद (960 – 1020 ई.) विविधायामी कृतित्त्व के पर्याय हैं। वे एक साथ गम्भीर दार्शनिक, रहस्यवादी, सौंदर्यशास्त्री, संगीतज्ञ, कवि, नाटककार, पाण्डुलिपिज्ञ, वेदान्तज्ञ और तर्कविद् थे। उनके बहुज्ञ व्यक्तित्व का व्यापक प्रभाव भारतीय आचार्यों पर पड़ा। अपने जीवन में उन्होंने पैंतीस से अधिक ग्रन्थों का लेखन किया, जिनमें से सबसे बड़ा और सबसे प्रसिद्ध तंत्रालोक है, जो कौल और त्रिक के सभी दार्शनिक और व्यावहारिक पहलुओं पर केंद्रित एक विश्वकोशीय ग्रंथ है और उसे आज हम कश्मीरी शैव दर्शन के रूप में जानते हैं। अभिनवगुप्त अद्वैत आगम और प्रत्यभिज्ञा दर्शन के प्रतिनिधि आचार्य तो हैं ही, साथ ही उनमें अनेक चिन्तनों का समाहार है। उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ तंत्रालोक में महायोगी गोरखनाथ के गुरु मत्स्येंद्रनाथ का उल्लेख किया है, जिनकी समाधि पुरातन नगरी उज्जैन में गढ़कालिका मंदिर और भर्तृहरि गुफा के मध्य स्थित है। वे इस ग्रन्थ में मच्छंद विभु (मीननाथ) को नमन करते हैं, इससे सिद्ध होता है कि उन्होंने नाथ पंथी साधना को आत्मसात किया था।
कश्मीरी शैव दर्शन के स्तम्भों में एक अभिनवगुप्त ने काव्यशास्त्रीय चिंतन को दर्शन की आधार भूमि पर उत्कर्ष पर पहुँचाया। शब्दशक्ति, ध्वनि और रस चिंतन को उन्होंने व्यापक फलक दिया था। आचार्य आनंदवर्धन (नवीं शताब्दी) के ग्रंथ ध्वन्यालोक की लोचन टीका के माध्यम से उन्होंने शब्द शक्ति और ध्वनि विमर्श में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। संस्कृत साहित्यशास्त्र की परंपरा में व्यंजना की स्थापना का जो प्रथम प्रयास आचार्य आनंदवर्धन ने किया था, उसे अभिनव गुप्त की गहन विवेचना से व्यापक आधार मिला। अभिनवगुप्त ने अभिधा, लक्षणा आदि को व्यापार और शक्ति दोनों कहा है। साहित्याचार्यों ने सामान्य रूप से शक्ति, व्यापार और वृत्ति को समानार्थक माना है। आचार्य अभिनवगुप्त अभिधा व्यापार और व्यंजना व्यापार को ही शब्द का धर्म कहकर अभिधा की महत्ता भी मान्य करते हैं। उनके अनुसार काव्य में जब शब्द के ये दोनों व्यापार संश्लिष्ट रूप में क्रियाशील होते हैं, तब उनके पौर्वापर्य क्रम का पता भी नहीं चलता और वे रस आदि की प्रतीति में परिणत हो जाते हैं। यह रस आदि की प्रतीति ही काव्य में शब्द प्रयोग का साध्य भी है।
अभिनवगुप्त ने व्यंजना विरोधियों के मतों का साधार निराकरण कर अभिधा, लक्षणा और तात्पर्य से भिन्न चौथे व्यापार के रूप में व्यंजना को स्थापित किया। उनकी दृष्टि में इस व्यापार को ध्वनन, द्योतन, प्रत्यायन, अवगमन आदि शब्दों द्वारा निरूपित किया जा सकता है।
मूल सिद्धांतकारों से टीकाकार का महत्त्व कम नहीं है, यह बात कश्मीरवासी अभिनवगुप्त पादाचार्य के महत्त्वपूर्ण टीका ग्रंथों से सिद्ध होती है। उन्होंने आनन्दवर्धन के ध्वन्यालोक की लोचन टीका और भरत मुनि के नाट्यशास्त्र की अभिनव भारती टीका का प्रणयन किया, जो भारतीय काव्यशास्त्र की महनीय उपलब्धि हैं। ध्वन्यालोक की टीका की कुछ पाण्डुलिपियों का नाम ‘सहृदयालोकलोचनम्’ और ‘काव्यालोकलोचनम्’ भी मिलता है। ‘ध्वन्यालोक’ पर ‘चंद्रिका’ टीका उपलब्ध थी, तब प्रश्न उठा कि ‘लोचन’ के लेखन की क्या आवश्यकता? आचार्य अभिनव गुप्त ने इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर दिया:
किं लोचनं विनाऽऽलोको भाति चन्द्रिकयोऽपि हि ।
तेनाभिनवगुप्तोऽत्र लोचनोन्मीलनं व्यघात्।
‘क्या लोचन नहीं है, तब तक चंद्रिका से ही यह लोक चमक सकता है? जाहिर है जब तक लोचन – नेत्र नहीं हैं, तब तक चंद्रिका के चमकने की प्रतीति हो ही नहीं सकती। इसीलिए अभिनवगुप्त ने लोचन का उन्मीलन किया।
साहित्यशास्त्र के क्षेत्र में अभिनव गुप्तपाद का दूसरा अत्यंत महत्त्वपूर्ण योगदान है, भरतमुनि के नाट्यशास्त्र पर उनकी टीका अभिनवभारती। यदि यह टीका उपलब्ध न होती तो नाट्यशास्त्र के मर्म को समझना मुश्किल होता। रस निष्पत्ति की व्याख्या अभिव्यक्तिवाद इसी टीका ग्रंथ का अवदान है। आचार्य अभिनव गुप्त की टीका के अत:साक्ष्यों से यह ज्ञात होता है कि उन्होंने नाट्यशास्त्र की अनेक हस्तलिखित प्रतियों का अत्यंत श्रमसाध्य अध्ययन किया था और उन्हें एकाधिक पाठांतर भी उपलब्ध हुए थे। इस अनुपम कृति से नाट्यशास्त्र की महत्ता सुरक्षित रह सकी है। उन्होंने अत्यंत स्पष्टता तथा विद्वत्ता के साथ आचार्य भरतमुनि के विचारों को प्रतिपादित किया है। टीका के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि अभिनवगुप्त के रूप में अभिनव भरत ही अवतरित हो गए हैं। इन दोनों टीका ग्रंथों की महिमा किसी भी मौलिक ग्रंथ से कम नहीं है। उनके द्वारा की गई एक और टीका की चर्चा मिलती है, काव्यकौतुकविवरण। काव्यकौतुक अभिनव के गुरु भट्टतौत की अनुपलब्ध प्रख्यात कृति है, जिस पर इनके विवरण का उल्लेख मिलता है, किंतु यह उपलब्ध नहीं है।
वे अभिनव या नवीनतम तो हैं ही, गुप्तपाद यानि गोपन गति वाले भी हैं, विविध विषयों में उनकी विलक्षण गति को जान पाना आसान नहीं है। अभिनवगुप्त का समय दसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध – ग्यारहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध था।