स्वदेशी वैश्वीकरण के रचनात्मक विकल्प के रुप में गांधी दृष्टिकोण

प्रोफेसर प्रवीण चन्द्र त्रिवेदी

लेखक कुलपति जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर है. पता . 140. वसुन्धरा कॅालोनी जयपुर

आज से सौ साल पहले गांधी का भारतीय राजनीति में प्रवेश हुआ तो उन्होने 22 अगस्त 1921 को स्वदेशी का नारा दिया। यह नारा यूं ही नही निकला था। इसकी तह में विदेशी कंपनी राज और अंग्रेजी हुकुमत द्वारा किए गए शोषण की तस्वीर मौजूद थी। दादा भाई नौरोजी वो विचारक थे जिन्होने अंग्रेजों के द्वारा भारत के शोषण की गाथा को देश के सामने लाया। नौरोजी जब इंग्लैंड गए तो वहां कि खुशहाली और विकास को देखकर चकित हो गए। इस विकास की तह में गए तो उन्होने निष्कर्ष निकाला की भारत से कच्चा माल ले जाकर ब्रिटेन में सामान बनता था। इसी सामान को विकासशील और गुलाम देशों में बेचकर इंग्लैंड अमीर हुआ। दादा भाई नौरोजी ही वो इंसान थे जिन्होने स्वराज का नारा दिया। स्वदेशी हमारे राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम का मूल मंत्र था कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं। उन्नीसवी सदी में दादा भाई नौरोजी की ड्रेन थ्योरी हो या रमेशचंद्र दत्त की लिखी भारत का आर्थिक इतिहास या सखाराम गणेश देउस्कर लिखित देशेर कथा जैसी पुस्तके हो सभी की चिंता के केंद्र में औपनिवेशिक शासन तंत्र द्वारा देसी संसाधनों का दोहन व देशी धन संपदा के विलायत में पलायन को रोकना मुख्य सरोकार थे।

यह पृष्ठभूमि में इसलिए बता रहा हूँ कि हम समझ सके कि विदेशी लोगों ने हमें कैसे लूटा है। इस लूट तंत्र के खिलाफ दादाभाई नौरोजी ने स्वराज का नारा दिया। नौरोजी से प्रभावित होकर ही गांधी जी ने हिंद स्वराज पुस्तक की रचना की। हिंद स्वराज पुस्तक में उन्होने भारतीय जनमानस को स्वदेशी की आवश्यकता और भावी भारत के सपने को उड़ान भरने के लिए जागृत किया। गांधी केवल लेखक नहीं थे बल्कि जनता की नब्ज थाम कर आगे बढ़ने वाले भविष्य दृष्टा थे। उनकी इस दृष्टि से भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ी गई लड़ाई के लिहाज से यह दिन ऐतिहासिक है। साल 1921 में 8 सितम्बर को महात्मा गांधी ने स्वदेशी का नारा बुलंद करते हुए विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी। यह अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एक अलग तरह के विरोध की शुरुआत थी। तब गांधीजी के आह्नान पर करोड़ों देशवासियों ने विदेशी कपड़ों का त्याग कर खादी को अपना लिया था। गांधी का स्वराज स्वदेशी स्वच्छता और सर्वोदय के मार्ग ने स्वतंत्रता आंदोलन को रचनात्मक आंदोलन में तब्दील कर दिया।

वो कहते है ना कि अन्याय के खिलाफ लड़ोंए लड़ नहीं सकते तो लिखोए लिख नहीं सकते तो बोलोए बोल नहीं सकते तो साथ दोए और अगर साथ भी नहीं दे सकते तो लिखए बोल और लड़ रहा है उसका साथ दो। मैंन आपसे यह बात इसलिए कहीं की गांधी केवल अंग्रेजों से नहीं लड़ रहे थे बल्कि वे भारतीय जनमानस में व्याप्त अन्यायए अत्याचार के खिलाफ भी लड़ रहे थे। उनका यह मानना था कि दलित और स्त्री की आजादी के बिना भारत की आजादी अधूरी है। महात्मा गांधी किसी ऐसी सभा में नहीं जाते थे जिस सभा में स्त्रियों की भागीदारी ना होए वे कहते थे कि जहां तक स्त्रियों के अधिकारों का सवाल हैए मै कोई समझौता नही करुंगा। ऐसा ही विचार दलित वर्ग के प्रति भी गांधी जी का था। गांधी जी पर कोई लाख लांछन लगाए लेकिन सवर्ण समुदाय से ताल्लुख रखने वाले वे पहले इंसान थे जिन्होंने दलितोद्धार को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। उनके ऊपर इन कार्यों को करने का कोई दबाव नहीं था लेकिन उनकी अंर्तआत्मा की आवाज के फलस्वरुप मंदिर प्रवेशए अस्पृश्य वर्ग की सत्ता और शिक्षण संस्थानों में उचित भागीदारी के सवाल पर एक छोर पर वे लड़ते रहे।

गुलाम भारत के दौर में दलित समुदाय को अस्पृश्य या अछूत कहकर संबोधित करने को महात्मा गांधी ने गलत बताते हुएए हरिजन यानि भगवान के बच्चे की संज्ञा दी। हरिजन नाम से उन्होंने तीन पत्रिकाएं भी निकाली। यरवदा जेल के माह सितम्बर 1932 में गांधी के लंबे उपवास के पश्चात निर्मित संगठन घनश्याम दास बिड़ला और ठक्कर बाबा के साथ.साथ कदम ताल करने वाले हरिजन सेवक संघ द्वारा गांधी के दृष्टिकोण से स्वदेशी वैश्वीकरण के दौर में कैसे विकल्प बन सकता है। सवाल का जवाब तलाशने के लिए सोचना होगा।

अब मैं मूल विषय पर आना चाहूँगा। कोरोना वायरस ने वैश्विकरण से आप्त सभी देशों की अर्थव्यवस्था के छक्के छुड़ा दिए। इनमें सबसे खराब हालात भारत की है। 23 फिसदी सकल घरेलू उत्पाद या लक्ष्य में गिरावट के बाद हमारी अर्थव्यवस्था औंधे मुंह गिर गयी। मजदूरों के खून से सने पैर आपने देखे है। हर रोज अखबारों में आत्महत्या की खबरे पढ़ने को मिलती है। बैंको के कर्ज और ब्याज पर ब्याज की मार से जनता आहत है। सरकारों के खजाने खाली है। पेंशनए तनख्वाह देने के लिए भी भारी मशक्कत करनी पड़ रही है। ऐसे मं गांधी को क्या हम इतिहास पुरुष और एक काल तक बांध सकते है 

मैं तो दिनकर के शब्दों में यही कहूंगा कि

एक देश में बांध संकुचित करो न इसको

गांधी का कर्तव्य क्षेत्र दिक नही काल है

गांधी है कल्पना जगत के अगले युग की

गांधी मानवता का अगला उद्धिकास है

स्वदेशी का नारा ही वैश्विकरण का रचनात्मक विकास है। बापू की वाणी का यही आगाज है। गांधी का स्वदेशी का नारा और वैश्वीकरण में सकारात्मक विकल्प किस प्रकार बन सकता है। इस बात को जानना है तो भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मॅाडल हमें देखना होगा। यदि कोई गांधी आश्रम वर्धाए चंपारण और साबरमती गया है तो उन्होने उस मॅाडल को समझा होगा। गांधीजी पहले ऐसे भारतीय थे जिन्होने वर्ष 1909 में अपनी पुस्तक हिंद स्वराज में मशीनीकरण के भयावह रुप को रेखांकित करते हुए स्वदेशी की महत्ता को बताया। गांधीजी ने रस्किन की पुस्तक अंटू दिस लास्ट से सर्वोदय के सिद्धांत को ग्रहण किया और उसे जीवन में उतारा।

गांधी जी का मानना था कि इससे स्वतंत्रताए स्वराज को बढ़ावा मिलेगा क्योकि भारत का ब्रिटिश नियंत्रण उनके स्वदेशी उद्योगों के नियंत्रण में निहित था। स्वदेशी भारत की स्वतंत्रता की कुंजी थी और महात्मा गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों में चरखे द्वारा इसका प्रतिनिधित्व किया गया था। गांधी ने स्वदेशी का आंदोलन केवल विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार तथा उनके अग्निदाह तक सीमित नही रखा बल्कि उद्योग शिल्प भाषाए शिक्षाए वेशभूषा आदि को भी स्वदेशी के रंग में रंग दिया।

गांधी के नारे और आज के भारत की तुलना करे तो वर्तमान दौर में तमाम हस्त उद्योगए कुटीर उद्योग लुप्त होते चले गएए घर.घर से चरखा गायब होता गया। बुनकरए लोहारए बढ़ईए चर्मकारए ठठेरा व कुम्हार सबके उद्योग नष्ट होते गए और शहरों से लेकर गांवों तक देशी व विदेशी फैक्ट्रियां कंपनियों के उत्पादित माल ने अपनी जगह बना ली। ग्रामीण रोजगार के साधन समाप्त होने के कारण शहरों में मजदूरी के लिए नागरिकों ने पलायन किया। दो वक्त की रोटी के लिए अपने गांवए खेतए घर परिवार को छोड़कर झोपड़ पटिटयों में रहने वाले सृजनकर्ताओं में भारत के सृजनकर्ताओं को मजदूर कहकर उनका अपमान नही करना चाहूँगा। जिनको सैकड़ो मिल पैदल चलते हमने देखा है। वैश्वीकरण के जाल में अपना सब कुछ बेचकर हसीन सपने पाले निकले लोगों पर कहना चाहूंगा।

धरोहर बेचकर निकले है

घर अपना बनाने

प्यास पथिकों को फिर मरीचिका दिखाने

पहले ही उलझे है

कितने जाल और बुनोगे

खुद ही सब कहोगे

या किसी और की भी सुनोगे

बिवाइयों से फुट रह लहूं

अब भी बातों से मरहम करोगे 

मैं सृजन करता धरती पर 

हुँह ! मुझमें क्या बदलाव करोगे

मुझमे क्या बदलाव करोगे।

भारत के उन सृजनकर्ताओंए किसानए राजमिस्त्रीए बुनकरए लोहारए बढ़ईए चर्मकारए ठठेराए कुम्हार आदि को अपने आसपास अपना रोजगार देकर ही बेहतर भारत का निर्माण कर सकते है। वैश्वीकरण के दौर में यह रचनात्मक बेहतर विकल्प स्वदेशी ही हो सकता है। गौरतलब है कि स्वदेशी के मामले में गांधी का अपने पूर्ववर्ती स्वदेशी समर्थक भारतीय बुद्धिजीवियों से अलग जो प्रस्थान बिंदु था वह था उत्पादन पद्धति का मुद्धा। भारत की आर्थिक प्रगति के लिए विदेश से मशीनों को लाने के बजाय हमें अपने देश के पारंपरिक उद्योग शिल्प को अपनाना और बढ़ावा देना चाहिए। गांधी मशीनों के अत्यधिक चलन को न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व के लिए अनिष्टकारी रुप में देख रहे थे। वे पहले भारतीय थे जिन्होने 1909 में अपनी पुस्तक हिंदी स्वराज में मशीनीकरण के इस भयावह रुप की और लोगों का ध्यान आकृष्ट कर चेतावनी दी थी कि मशीने यूरोप को उजाड़ने लगी हैं और वहां की हवा अब हिंदुस्तान में चल रही है। यंत्र आज की सभ्यता की मुख्य निशानी है और वह महापाप है ऐसा मैं तो साफ देख सकता हूँ। मशीन की यह हवा अगर चली तो हिंदुस्तान की बुरी दशा होगी। हस्त उद्योग व कुटीर उद्योग के लुप्त होने से भारत ने अपने विनिर्माण क्षेत्र को खो दिया।

स्वचालन वैश्वीकरण और स्थानीयकरण की नई दुनिया में जहाँ औपचारिक क्षेत्र की नौकरियाँ कम होती जायेगीए हमारा भविष्य अपने स्वयं के कौशल निर्माणए स्वरोजगार और आत्म उन्नति पर ही तो निर्भर है और गांधी यही तो चाहते थे। स्वण् रोजगार जहाँ भविष्य में सरकार और उद्योग सहायक भूमिका में होंगे। उनका मानना था पूंजी कुछ लोगों के श्रम का शोषण कर खुद को कई गुना बढ़ाती हैए तो उन्होने समान रुप से यह भी देखा कि अगर स्वनियंत्रित न होए तो संगठित श्रम भी एक बड़ा खतरा बन जायेगा।

गांधी का स्वदेशी विचार भी प्रकृति के खिलाफ आक्रामक हुए बिना स्थानीय रुप से उपलब्ध संसाधनों के उपयोग का सुझाव देता है। उन्होंने आधुनिक सभ्यताए औद्योगिकीकरण और शहरीकरण की निंदा की। गांधी ने कृषि और कुटीर उद्योग पर आधारित एक ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था का आह्नान किया। भारत के लिये गांधी की दृष्टि प्राकृतिक संसाधनों के समझदारी भरे उपयोग पर आधारित हैए न कि प्रकृतिए जंगलोंए नदियों की सुंदरता के विनाश पर। बापू ने इस संबंध में कहा कि पृथ्वी के पास सभी जरुरतों को पूरा करने के लिये पर्याप्त संसाधन हैए लेकिन हर किसी के लालच को नही। महात्मा गांधी का स्वदेशी स्वराज और सर्वोदय के सिद्धांत वैष्वीकरण के दौर में आज और अधिक प्रासंगिक हो गई है जब कि लोग अत्यधिक लालचए व्यापक स्तर पर हिंसा और भागदौड़ भरी जीवनशैली का समाधान खोजने की कोशिश कर रहे है ऐसे में बापू के स्वदेशी सर्वोदय और स्वराज का सिद्धांत ही वैश्वीकरण के रचनात्मक विकल्प के रुप में हमारे सामने है। जिस पर हमें सबको अमल करना चाहिए।

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