लोक और शास्त्र का अद्भुत समन्वयः गाँव-गाँव गोरख नगर-नगर नाथ – डाॅ. श्रीकृष्ण ‘जुगनू’

डाॅ. विभा सिंह

लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार है।

पता- एस 119, प्लाॅट 2, सेक्टर 5, द्वारका, नई दिल्ली

साधना भारतीय संस्कृति में साधक को सिद्ध बनाने वाली मानी जाती है और ‘नाथ’ सिद्ध के पर्याय भी हैं और विशेष उपलब्धि के सूचक भी। गोरखनाथ का आविर्भाव जिस काल में हुआ था वह समय भारतीय साधना में बड़े उथल-पुथल का है। भारतीय दंत कथाओं में गुरू गोरखनाथ सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान माने गये हैं। शिव नाथ पंथ में आराध्य देव हैं और कभी-कभी तो इन्हें शिव के समतुल्य भी बताया गया है। यह बड़े दुःख की बात है कि जिस गोरखनाथ का भारत के धार्मिक इतिहास में इतना बड़ा महत्त्व है उनके विषय में प्रमाणिक अन्वेशण का आभाव रहा।

डाॅ. श्रीकृष्ण ‘जुगनू’ द्वारा लिखित ‘गाँव-गाँव गोरख नगर-नगर नाथ (आर्यावर्त संस्कृति संस्थान द्वारा प्रकाषित) पुस्तक इस कमी को पूरी करती दिखाई पड़ती है। इस पुस्तक में नाथ पंथ/गोरखनाथ से जुड़े अनेक पक्ष को सप्रमाण संजोने का प्रयास किया गया है। यह पुस्तक जितना शास्त्रीय आधार लिए हुए है, उतना ही लोकपक्ष को भी लेकर चली है। अपने देश-विदेश की अनेक यात्राओं के पश्चात् ‘जुगनू’ जी लिखते हैं ‘‘मैंने अपने…. यात्राओं के दौरान यह सर्वत्र पाया कि इस वृहद् परिदृश्य में लोक चेतना जिन तत्त्वों को स्वीकृत किए है, वे लगभग समान स्तरीय है और उनमें औपनिशदिक प्रवाह है। लोक इसका बड़ा हेतु भी है तो सेतु भी। इस वृहद् क्षेत्र में शास्त्र लोक से पूरी तरह प्रभावित है और लोक चेतना ही शास्त्रीय स्थापनाओं के लिए आधार का काम करती रही है।’’(पृष्ठ-अपप) गोरख सम्प्रदाय की अनुश्रृतियाँ, कबीरपन्थ के ग्रन्थ, धर्मपूजा-विधानसाहित्य यद्यपि रचनाकाल की दृष्टि से बहुत अर्वाचीन हैं तथापि वे अनेक पुरानी परम्पराओं के अवषेष है। समूची भारतीय संस्कृति के अध्ययन के लिए इनकी बहुत बड़ी आवष्यकता है। लोकभाषाओं का साहित्य हमें अनेक अधभूली, भूली और उलझी हुई परम्पराओं को समझने में अमूल्य सहायता पहुँचाता है। लोककथा, मूर्ति और मंदिर साधुओं के विशेष-विशेष सम्प्रदाय, उनकी रीति-नीति, आचार-विचार पूजा-अनुष्ठान आदि की जानकारी परम् आवश्यक है। क्योंकि इन लोककथाओं और अनुष्ठानों के भीतर से अनेक सम्प्रदायों की विषेषता का तो पता चलता ही है साथ ही कभी-कभी इनके द्वारा उन पूर्ववर्ती मतों का भी पता चल जाता है जो या तो इन परवर्ती मतों के विरोधी थे या इन्हीं में घुल-मिल गये हैं। अतः इन्हें समझने के लिए केवल लिखित-साहित्य ही नहीं लोककथाओं-अनुष्ठानों को जानना समझना भी जरूरी है।

गहन शास्त्रीय अध्ययन एवं लोकजनश्रुतियों के गुणन-मनन के बाद ‘जुगनू’ जी का आग्रह है कि-‘‘यायावर मित्रा वरूण और उर्वशी से अगस्त्य की उत्पत्ति कलश में रखकर नदी में प्रवाह, कुमार अगस्त्य की खोज, धुमक्कड़ वृत्ति से देशाटन, तन्त्र-मन्त्र से लेकर लोकोपचार, विन्ध्याचल को बढ़ते हुए रोकना, बादामी में वातापी राक्षस का वध, आगे बढ़कर समुद्र का आचमन करना और पुनः उत्सर्जन कर जीवों को जीवन देने जैसे प्रसंगो के प्रकारान्तर और समयान्तर से नाथों के साथ जुड़ते हुए भी देखना चाहिए।’’ (पृष्ठ अपपप) नाथसाहित्य लोक-भावना एवं समष्टिगत चिंतन को उकेरता एक सार्थक उपलब्धि है। सिद्धिदायी, सिद्धसेवित योगोपदेश संयम और सदाचार पर आधारित नियम गोरखनाथजी के प्रमुख सन्देष रहे हैं। योग साधना में सात्त्विकता और नैतिकता में समावेश के साथ ही लोकजीवन में संयम और सदाचार की स्थापना करना भी उनके लोक मंगलकारी चरित्र और चिन्तन का श्रेयस्कर प्रयोजन था। इसके लिए नाथों ने अपने उपदेश और रचना के लिए जिन भाषाओं को स्वीकारा वह लोक और श्लोक दोनों दृष्टि से महत्त्व रखतीहै।’’ (पुस्तक के कवरपेज से)

गोरखनाथ की रचना के रूप में संस्कृत तथा हिन्दी में कई रचनाएँ उपलब्ध है। उनकी बहुतसी रचनाओं का उल्लेख ब्रिग्स, फुर्कहर, आफ्रेक्ट, प्रबोधचन्द बागची, कल्याणी मल्लिक पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल, हजारीप्रसाद द्विवेदी, धर्मवीर भारती, रांगेय राघव जैसे विद्वानों ने अपने ग्रन्थों में किया हैं और सभी अपनी विशिष्ट स्थापनाओं के लिए चर्चित रहे हैं। परन्तु प्रस्तुत पुस्तक में शास्त्र और लोक का ऐसा गुम्फन है जो चकित करने वाला है- ‘‘गर्ग और नारदादि के नाम से जिस तरह शास्त्र सृजन की परम्पराएँ रहीं, वैसी ही तन्त्रादि में गोरखनाथ की परम्पराएँ सामने आयीं। स्कन्द और शिवादिपुराणों में भी यह प्रभाव दृष्टव्य है। लोका´चल में गोरख की छाप से भजनों, पदों और जाप-षब्दों की प्राप्ति एक अनूठा पक्ष है तो साबरमंत्रों का हर क्षेत्र में मिलना गोरख के गौरव दृष्टि कही जाएगी।’’  शास्त्रों के तमामनिदेर्शों के विद्यमान होने के बावजूद लोक जीवन नाथ मत से अतिशय रूप से प्रभावित है और हर कहीं उस प्रभाव की पताका फहराती दिखाई देती है। इसलिए कहा गया है- ‘‘नाथ परतरांमन्त्रो नाथ परतरंतपः। तृशायन्ते मन्त्री सिद्धादयः सर्वा यदग्रतः।। अर्थात् नाथ से बढ़कर कोई मंत्र नहीं, नाथ से बढ़कर कोई तप नहीं, इसके आगे सभी मांत्रिक और सिद्ध आदि तृणवत् होते हैं।’’ (पृष्ठ अपपप) यही नहीं लोक जीवन में-‘‘जिस तरह नारी जीवन में पारिवारिक आयोजनों को लेकर लोकगीतों का महत्त्व है वैसे ही नाथ-पुरूषों में जाप शब्द प्रचालित रहे हैं।’’ यहाँ तक कि-’’ गोरखनाथ के उपदेश से प्रभावित होकर एक कुख्यात तस्कर भी साधु बन गया और उसने अपना निर´जनी नामक पंथ चलाया।’’ (पृष्ठ-168) 

यह धारा इतनी सामाजिक और प्रासांगिक रही है कि उसका प्रभाव आज तक देखा जा सकता है। संयमपूर्वक रहने से सांसारिक मानव के दुःख दर्द दूर हो जाते हैं। यह बात आज योगासनों के बढ़ते प्रचार से स्पष्ट हैं। जुगनू जी लिखते हैं- ‘‘आज यदि योग की ओर सम्पूर्ण विश्व आशा भरी निगाहों से देख रहा है तो इसे गोरखादि नाथों की कालजयी दूरदृष्टि के रूप में भी स्वीकार करना चाहिए-तेजो गीततसार।’’  नाथों ने योग की महत्ता को मानकर माया छोड़ काया को सुधारने की दृष्टि दी।

अनेकमतों के लिए नाथों के मतों को प्रमाण के रूप में उद्धत करने की सुदृढ़ परम्परा रही हैं जिसमें वैष्णम मत के प्रचारक महाकवि सूरदास और रामचरितकार गोस्वामी तुलसीदास ने गोरख आदि का स्मरण किया है तो सूफीमत के जायसी ने भी अपनी प्रसिद्ध रचना ‘पùावत’ में राजारत्नसेन पर गोरखनाथ की कृपा को स्वीकार किया है। कबीर पर पड़े प्रभावतो यत्र-तत्र-सर्वत्र दिखाई पड़ते ही हैं।

गोरखनाथ के दार्षनिक तथा व्यवहारिक क्रान्ति की अखिल भारतीय व्याप्ति ने समकालीन प्रचलित अनेक पंथों, वैचारिक पद्धत्तियों को सिद्धमत, सिद्ध मार्ग, योगमार्ग, योगपंथ, अवधूतमत, गोरखनाथी आदि अनेक मत और मार्गनाथ पंथ ‘मार्ग’ में सम्मिलित होकर एक नवीन मार्ग प्रशस्त किया जो नाथ पंथ के नाम से प्रसिद्ध है। नाथपंथ से सम्बंधित साहित्य में नाथपंथ के लिए- कनफटा, योगीदर्शनि, गोरखनाथी आदि अभिधान प्राप्त होता है। परन्तु जुगनूजी ने इसे ‘नाथधारा’ नाम से स्वीकारा है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में शैली गत प्रवृत्तियों के आधार पर जिस सिद्धोत्तरनाथों के युग को राहुलजी, वर्मा जी अथवा रामचन्द्र शुक्लजी ने आदिकाल या सिद्ध सामन्तकाल के अन्तर्गत रखा और डाॅ. नगेन्द्र आदि ने नामकरण की समस्या को रेखांकित किया उसके लिए जुगनूजी कहते हैं-’’यदितन्त्र और योग के इतिहास की दृष्टि से विचार किया जाए तो अलग ही धारणा उभरकर सामने आती है। भाषा के साथ ही भाव के समानान्तर साधना और सिद्धि की जो मान्यताएँ सामने आती है, उसे हम ‘नाथधारा’ ही कहना उचित समझते हैं।’’ (पृष्ठ- 262)

अगर ‘पथ’ को साधारण अर्थ में लें तो ‘रास्ता’ ‘मार्ग’ होता है, जिस पर चलकर व्यक्ति अपने गन्तव्य तक पहुँचता है। वहीं ‘धारा’ शब्द लगातार बहने वाली-जैसे नदी का बहाव, जो मार्ग में आए किसी भी बाधा के बीच भी सरलता से बहती रहती है; दूसरा निरन्तर गिरने का क्रम। जैसे- धारा रूप में वर्षा होना, और समान रूप से प्रकृति के छोटे-बड़े सभी अवयवों को बिना भेदभाव के सींचना, उन्हें पोषित करना होता है। इस अर्थ में यदि देखें तो ‘नाथतत्त्व’ ने जिस प्रकार से जन-जन में प्रवाहित हो उन्हें पोषित किया है, तो ‘जुगनूजी’ द्वारा ‘नाथधारा’ शब्द से अभिहित करना उचित ही जान पड़ता है।

इस पुस्तक की एक बड़ी प्रतिष्ठा है गोरखनाथ के अनुसार नाथों के आचार शास्त्र पर विमर्श। गोरख के नाम से सैकड़ों शबद लोक कंठ पर मौजूद है। शाबरमन्त्रों की इनका पाठ है और जाप के रूप में उपांशु जप के विषय हैं। ॐ गुरुजी से आरम्भ होने वाले शबद की एक बड़ी प्रतिष्ठा है कि वे अनंतकरोड़ सिद्धों में गोरख को गादीपति सिद्ध करते हैं। गर्भ दीक्षा से लेकर समाधि तक गावं त्री रूप में ये शब्द गुरु से शिष्य को मिलते रहे  इसी कारण इनको लिखा नहीं गया। ये भी एक कारण है कि लोक जिन शब्दों को गोरखकृत मानता है गोरखबानी में वे नहीं मिलते ! काग़ज़ पर लिखे और कंठ पर धारण किए शब्द और शबद का भेद भी यहां स्पष्ट होता है। इसी पुस्तक में गोरखनाथ के पदों का पाठ रज्जब कृत सर्बंगी के आधार पर दिया गया है जो अधिक प्रामाणिक लगता है।

जुगनूजी का यह कहना कि ‘‘इसमें लोकपक्ष पर विशेष विमर्श है और अनेक बातें पहली बार सामने आएँगी।’’ (पृष्ठ पग) न तो अतिश्योक्ति है और न ही आत्मश्लाघा। आप पुस्तक को पढ़ते हुए यह स्वयं महसूस करेंगे कि आप इनमें बहुत-सी बातें पहली बार एकत्र कर पुस्तकाकार देना कितना श्रम साध्य रहा होगा। अपनी कठिनाई को व्यक्त करते हुए जुगनूजी कहते हैं- ‘‘किसी विषय के दह्मम को खोजना भारतीय संस्कृति में वैज्ञानिक खोज से भी अधिक कठिन है क्योंकि जिससे सम्बद्ध उसको माना जाता है, खोजने पर वह अलग विषय के साथ मिलता है।(पृष्ठ-12)

प्रस्तुत पुस्तक में विभिन्न संग्रहालयों से नाथों से संबंधित रंगीन चित्रों का संकलन एवं शोध केन्द्र संस्थानों से गुरू गोरखनाथ व उनसे जुड़े ग्रन्थों की पाण्डुलिपियों के चित्र और सहायक ग्रन्थों की सूची शोधार्थियों के लिए अमूल्य नीधियाँ हैं। इसमें अनेक पद्यों को, अनेक रागों में गेयता को भी रेखांकित किया है जिसमें ज्यादातर पद्य राग: रामकली और राग: आसावरी में दिखाई पड़ते हैं। इन सभी को गाँव-गाँव गोरख, नगर-नगर नाथ पुस्तक में लोकव्यापि संस्कृति और नाथ योग, तपोधनी तपस्वी, साधना और सिद्धियाँ, नाथ और गोरखनाथ, जाप-श्षब्दानुशासन के जनक गोरखनाथ, गोरखनाथ का बहुमुत लोग प्रभाव, लोक स्मृतियों में गोरख और नाथों का वर्चस्व, अनातीत गोरखनाथ और उपसंहार द्वारा गोरखनाथ का बहुश्रृत लोक प्रभाव और अनातीत गोरखनाथ विषय कई बड़े प्रमाण के साथ प्रस्तुत किया गया है। परिशिष्ट के रूप में गोरखनाथ ग्रन्थावली के संस्कृत भाषा में लिखित मूल-परिशिष्ट- 1. हठयोग, 2. गोरखपद्धतिः, 3. गोरक्षसंहिता, 4. गोरओपनिशद्, 5. अमरौधशासनम्, 6. अमरौधप्रबोधः, 7. योगमात्र्तण्ड, 8. गोरक्षशतकम्, 9. योगबीजम् दिया गया है। इस तरह से यह किताब गोरखबीजक भी हो गया है।

इस पुस्तक में कमी क्या कहा जाय ? तो आप कमी कहें या गुण-पुस्तक धैर्य के साथ पढ़े जाने की माँग करती है। धीरे-धीरे जैसे-जैसे आप पढ़ते जाएगें वैसे-वैसे शास्त्र और लोक में संबंधों को देखने-समझने की एक नई दृष्टि पायेंगे कि ये जड़ रूप नहीं बल्कि पल्लव रूप है!

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