आज भी शिष्यों में गुरूभक्ति होती है- गुरू जयरामाराव

पूर्णिमा मित्रा

लेखिका युवा साहित्यकार है पता- ए-59 करणीनगर, नागानेचीजी रोड, बीकानेर

उत्तरी भारत में कुचिपुड़ी नृत्य के प्रचार-प्रसार हेतु गुरू जयरामाराव की प्रमुख भूमिका रही है। करीब पांच दशकों से जयरामाराव ने कुचिपुड़ी नृत्यगुरू के रूप में, देश के हजारों युवा नृत्यांगनाओं को प्रशिक्षित किया है। वे स्वयं एक उत्तर नृत्यसंरचनाकार व नर्तक है। विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित जयरामाराव को प्रारम्भिक स्तर पर अपने आप को स्थापित करने के लिए काफी प्रयास करने पड़े। लेकिन आप ने सकारात्मक दष्टिकोण बनाये रखा। प्रस्तुत है, उनसे बातचीत के प्रमुख अंश।

पूर्णिमा- आपकी रूचि इस क्षेत्र में कैसे हुई ?

जयरामाराव जी- जब मैं करीब आठ वर्ष का था। तब हमारे गांव कुचिपुड़ी में प्रख्यात कुचिपुड़ी नर्तक वेदांत शर्मा अपना नृत्य प्रदर्शित किया। तब से मैंने कुचिपुड़ी नृत्य को ही अपना कैरियर बनाने का निश्चय कर लिया।

पूर्णिमा- आपने नृत्य की प्रारम्भिक शिक्षा कहां से ग्रहण की ?

जयरामाराव जी- अपने गांव में कुचिपुड़ी नृत्य संस्था कला क्षेत्र में दस साल कुचिपुड़ी सीखा।

पूर्णिमा- आपने अपना प्रथम सार्वजनिक नृत्य प्रदर्शन कहा किया ?

जयरामाराव जी- पन्द्रह वर्ष की आयु में ‘गणपति महोत्सव’ में बैंचों से बने अस्थायी मंच में पैट्रोमैक्स लाइट में मैंने अपना पहला नृत्य प्रस्तुत किया। यह एक अद्भुत अनुभव था।

पूर्णिमा- बढ़ती हुई लोकप्रियता ने इस नृत्य पर कैसा प्रभाव डाला ?

जयरामाराव जी – जैसे-जैसे इस नृत्य की लोकप्रियता बढ़ी। इसमें गिरावट आना प्रारम्भ हो गया। पहले कलाकार जमीनदारों पर आश्रित थे। लेकिन वे कुचिपुड़ी नृत्य में पारंगत होकर अपना नृत्य प्रदर्शन करते थे। लेकिन अब बहुत से नौसिखिया कलाकार भी मंच प्रस्तुति में तत्पर रहते है। बहुत से माता-पिता भी अपने बच्चों को जल्दी से प्रसिद्ध होते देखना चाहते है। इसलिए स्वयं रूपये खर्च करके अपने बच्चों के प्रोग्राम आयोजित करवा लेते है। ऐसे में नृत्य कुचिपुड़ी नृत्य का वास्तविक स्वरूप दर्शकों के सामने नहीं आ पाता।

पूर्णिमा- वनश्री के साथ युगलनृत्य प्रस्तुत करने के बावजूद, आमतौर पर नृत्यगुरू के नाम से ही जाना जाता है। ऐसा क्यों ?

जयरामाराव जी- इसका प्रमुख कारण यह है कि मैं मिसेज के.एल. राव के अनुरोध पर दिल्ली में नृत्यगुरू की हैसियत से आ गया। तब यहां के लोग कुचिपुड़ी नृत्य के बारे में इतना नहीं जानते थे। दर्शकों का रूझान भी इस नृत्य के प्रति खास नहीं था। मैं भी नृत्य सीखाने में व्यस्त रहता था। इसीलिये मेरी नृत्यगुरू के रूप में ज्यादा पहचान बनी।

पूर्णिमा- कलाकारों को पुरस्कृत करने के संबंध में आपकी क्या राय है ?

जयरामाराव जी – इसमें संदेह नहीं है कि पुरस्कार मिलने पर कलाकारों को एक्सपोजर मिलता है। आम जनता उसे पहचानने लगती है। लेकिन पुरस्कार देने वाले संगठन व संस्थाओं का यह कत्र्तव्य है कि वह सही व्यक्ति को पुरस्कृत करे।

पूर्णिमा – परफाॅर्मिंग आर्टस में अक्सर ग्लैमर का बोलबाला रहता है। इस संबंध में आपकी क्या धारणा है ?

जयरामाराव जी – इस नृत्य में ग्लैमर की भूमिका तो है, पर एक कुचिपुड़ी नर्तक के ग्लैमरस चेहरा होना ही काफी नहीं है। उसमें प्रतिभा, लगन और शारीरिक क्षमता भी होनी चाहिए। क्योंकि दर्शक सिर्फ ग्लैमर देखने के लिए नहीं आते है।

पूर्णिमा- आपकी पत्नी वनश्री खुद जानी-मानी नृत्यंागना है। आप दोनों में कभी इगो क्लेश नहीं करता है ?

जयरामाराव जी – नहीं। वनश्री में सामंजस्य बैठाने की अद्भुत क्षमता है। 

पूर्णिमा- आप से अनेक ख्याति प्राप्त नृत्यांगनाओं ने नृत्य सीखा। लेकिन बतौर नृत्यगुरू वे आपका उल्लेख नहीं करती। इस संबंध में आपका क्या मानना है ?

जयरामाराव जी – मैं भी ऐसे शिष्य-शिष्याओं का नाम बताने का इच्छुक नहीं हूं, जो मुझसे नृत्य सीखकर मेरा नाम नहीं लेते है।

पूर्णिमा- अपने जमाने के और आज के जमाने के शिष्यों में क्या फर्क महसूस करते है ?

जयरामाराव जी- समय के साथ हर चीज में बदलाव आना स्वाभाविक है। पहले के शिष्य गुरूओं को बहुत ज्यादा सम्मान देते थे। लेकिन आजकल शिष्य अपने गुरूओं को ‘हैलो’ कहते है। वैसे आज भी शिष्यों में गुरूभक्ति की भावना होती है। 

पूर्णिमा- कुचिपुड़ी नृत्य के प्रचार-प्रसार के लिए आपकी क्या राय है ?

जयरामाराव जी – ‘स्पिक मैके’ जैसी संस्थायं लेक्चर डेमोस्ट्रेशन के माध्यम से स्कूली-काॅलेज के छात्रों में शास्त्रीय नृत्यों के प्रचार का महत्वपूर्ण काम कर रही है। ऐसी ही कई अन्य संस्थाये काम करे तो आने वाली पीढ़ी के दर्शकोें को, इस नृत्य की बारिकियां व मूल स्वरूप समझने में आसानी होगी।

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