दहकते अंगारों में सबद नाद

डाॅ. राजेश कुमार व्यास

शंकर विहार-ई, 28-ए, सिद्धार्थ नगर, जयपुर-302017

धधकते हुए अंगारों के बीच किया जाता है, जसनाथी संप्रदाय द्वारा किया जाने वाला अग्नि नृत्य।  कतरियासर गाॅंव में जसनाथी सिद्ध रतजगे के समय धूणा कर उसकी परिक्रमा करते हैं ओर फिर गुरु की आज्ञा लेकर ‘फतह! फतह!’ कहते अंगारों पर नृत्य करते हैं। संस्कृतिकर्मी, कवि, कला आलोचक डाॅ. राजेश कुमार व्यास ने ‘विकल्प’ के लिए खासतौर से इस यात्रा को संजोया है। सम्पादक

धूणे से उठता धूंआ धीरे-धीरे कम हो गया था। लकड़ियां कोयले में तब्दील हो गई थी। दिख रहा था तो बस दहकते अंगारों का ढेर। समीप में घी की अखंड जोत जल रही है। कुलगुरू हवन करता है और फिर चार जने गुरू को उठाकर पाट पर बिठा देते हैं। हुकुम होता है, ‘सिद्धों गायबो सरू करो।’
नगाड़े की जोड़ी पर हथेलियों से तेज थाप का नाद। आरोह-अवरोह में आलाप। ओंकार सरीखा। धूणे के पास बैठे कुछ सिद्ध अपने हाथों में  लंबी डोरी के मजीरे बजाते हुए ओंकार ध्वनि की बढ़त करते हैं।… तीन सबद जसनाथी के और चैथा पद ‘नाचणियो’। यह सिद्ध रूस्तमजी का सबद है। इसके साथ ही धूणे की परिक्रमा कर गुरू को नमस्कार करते नाच आरंभ हो जाता है। तेज होती वाद्य गति में गाए शब्द तो कुछ समझ नहीं आते परन्तु कानों में ‘फतै…फतै’ साफ गुंजरित होता है।…
कतरियासर में अंगारों पर होने वाले नृत्य का सुना था तब विष्वास नहीं था पर आंखों देखे को कैसे कोई झुठ कहे! मैंने साथ आए छायाकार मित्र सुकेत को कोहनी मारते हुए कहा, अंगारों पर नृत्य करते सिद्ध जो गा रहे हैं, वह कुछ समझ में आ रहा है? उसने मेरी अज्ञानता पर तरस दिखाते सबद गान के तो अर्थ नहीं बताए परन्तु ‘फतै…फतै’ का मतलब समझाते कहा कि सिद्ध कह रहे हैं कि ‘ईष्ट हमें विजय प्रदान करो।’
बीकानेर से रवाना होकर हम संध्या होते-होते वहां से 45-50 किलोमीटर दूरी के निकट के गांव यहां कतरियासर पहुंचे थे। जयपुर हाईवे से गांव के लिए छोटी पगडंडी पर मुड़ते ही धोरों की धरा लुभाने लगी थी। दूर तक पसरे रेत के धोरे। कुछ देर की यात्रा बाद ही हम कतरियासर में थे। गांव नहीं यह चमक-दमक से लबरेज कोई अनूठी बस्ती लग रही थी। ऊॅंटों की दौड़। उनका नृत्य।…और सैलानियों की रेलम-पेल। रेत के धोरों पर अलगोजे, हारमोनियम, रावण हत्था और ऐसे ही दूसरे देसज वाद्य यंत्रों की सुमधुर ध्वनियां। मांगणियार, लंगा, ढोली कलाकार अपने वाद्यों से लुभाने में लगे थे। यह ऊॅंट उत्सव का  दूसरा दिन था। सूर्यास्त से ही इंतजार सिद्धों के जिस अग्नि नृत्य का था, वही अब हमारे सामने था।
लाल दहकते अंगारों पर जसनाथी नृत्य। तेज होते वाद्यों की गति और सबद नाद के साथ ही नर्तक अपनी धुन में मगन। औचक एक नर्तक अंगारे को हाथों से उठा मुंह में डाल रहा है तो दूसरा उसे अपनी हथेली में ले मजीरे की तरह फोड़ रहा है। कुछ अंजूरी में भर सबद लय के साथ अंगारे हवा में उछाल रहे हैं। आग से गायी जा रही है जैसे फाग राग। अंतराल अंतराल में ‘फतै…फतै’ के स्वर। मैंने गौर किया, धु्रवपद धमार की तरह विलम्बित लय में संगीत के सुरों से साक्षात् हो रहा हूं। भले देसज स्वर हैं परन्तु उनमें एक अनूठी लयात्मकता है। पता चलता है, जसनाथी अग्नि पर नृत्य करते ‘सिंम्भूधड़ो’, ‘कोड़ो’, ‘गौरखछंदो’ स्तवन रचनाओं का गायबा करते हैं। आलाप में ओंकार नाद। ‘सिरलोक’ गान। श्लोक की देसजता। वहीं कुछ सिद्धों से संवाद हुआ। पता चला, पहला सिरलोक ‘बड़ी राग’ दूसरा सबद ‘सूभ राग’ और तीसरा सबद ‘हंसा राग’। रात के तीन पहरों में सिद्ध इन्हें गाते हैं। गायन उपरान्त पंथ के सिद्ध ‘चलू’ आचमन लेकर विदा होते हैं। चलू माने धर्म की आण, गुरू की काण।
बताते हैं, कतरियासर से ही जसनाथी संप्रदाय का आर्विभाव हुआ। यहां के जागीरदार हमीरजी को डाबला तालाब पर कभी जसनाथी जी मिले थे। हमीरजी की पत्नी रूपादे ने उनका प्यार से पालन-पोषण किया और नाम रखा जसवन्त। जंगल में ऊॅंटनियों को ढूंढते एक दिन गुरू गोरखनाथ ने जसवंत के कान में सत्य सबद फूंक दिया। बारह वर्षीय बालक जसवंत से जसनाथ हो गया। जसनाथ से ही बाद में बना जसनाथी संप्रदाय। सिद्धों का मानना है, सिद्ध जसनाथ और सिद्ध रूस्तमजी की अनुकम्पा से अग्नि में नृत्य करते हुए भी उनके पैर जलते नहीं है। अग्नि से उनकी वही रक्षा करते हैं।
गांव से गाड़ी फिर से शहर की ओर  रवाना हो गई है। कानों में सिरलोक माने जसनाथजी की वाणी ही गुंजरित है। भले सबद समझ नहीं आए परन्तु गायबा यानी गायन-वादन की लय अभी भी मन को झंकृत कर रही है। मन में आया, विज्ञान के इस समय में अग्नि नृत्य अबूझ रहस्य ही तो है। इससे जुड़ी कहानियां भी कम रोचक नहीं है। कभी औरंगजेब ने अग्नि नृत्य के जरिए पांखड फैलाने की षिकायत पर जसनाथी संप्रदाय के लोगों को दरबार में तलब कर लिया था। तब वहां उन्हें यह नृत्य करना पड़ा। संत रूस्तमजी की अगुवाई में दिल्ली फत्तै करने पर सिद्धों को तब जागिरें भी मिली। औरंगजेब सिद्धों से इतना प्रभावित हुआ कि कुछ भी मांगने को कह दिया। रूस्तमजी ने कुछ नहीं मांगा बस अपने संप्रदाय द्वारा धार्मिक सबद नाद, नृत्य में नगाड़ा रखने और बजाने की अनुमति भर मांगी। औरंगजेब ने इसे मान लिया। अग्नि नृत्य में नगाड़ा वादन के साथ होते सबद नाद और इससे जुड़े ऐसे ही किस्से-कहानियोें को अपना बना लौट रहा हूं। विदा कतरियासार। विदा।

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