तरुण शुक्ला
लेखक यायावर हैं। पता: गांधीनगर, गुजरात
वढवान, झालावाड़ गुजरात में एक क्षेत्र है और अपनी पुरानी स्थापत्य शैली के अनेक प्रमाणों को सहेजे हुए हैं। वढवान नगर का मन्दिर, कुण्ड और अन्य स्थापत्य सोलंकी युग का प्रतिनिधित्व करते हैं और सोमपुरा शिल्पियों की दक्षता पर हस्ताक्षर करते हैं। इनमें गंगवो कुण्ड अनुपम है।
जल यानी वारि या पानी मनुष्य जीवन में और सभी जीवित प्राणियों के लिए जरूरी तत्व है । भारतवर्ष में पहले से जल को बड़ा महत्व दिया गया है । जल को ही जीवन माना गया है । इस लिए पुरानी सभी मानव सभ्यता पानी के इर्दगिर्द यानी जल्स्तोत्र के पास ही बसी हुई थी ।
जल संचय हेतु कुदरती जल रचना जैसी की नदीए नालाए तालाब के साथ साथ कृत्रिम या जिसे हम मानव सर्जित जलसंचय सुविधा कहे ऐसी वावए कुआए कुंड, कृत्रिम तालाब की रचना राजा महाराजा तो अपनी प्रजा के उपयोग हेतु करवाते ही थे। साथ साथ समाज के अग्रिम और धनी लोग अपने पूर्वजों की स्मृति में जल स्थापत्य बनाकर लोगो के लिए जल सुविधा उपलब्ध करवाते थे ।
उस जमाने में बंजारा, सार्थवाह लोग अपने कारवां के साथ समुद्र के पास से बंदरगाहों से और व्यापारिक जगहों से विविध माल.सामान ढोते थेए जो रास्ते पूरे देश मे फैले हुए थे। वे भी अपने कारवां के रास्ते पर वाव, कुंड बनाकर पानी एवं अपने समयोचित आराम और पशुओं के लिए पानी का इंतज़ाम करते थे ।
पुराने समय मे बनाये गए जल स्रोत में से काफी जल स्थापत्य आज भी बचे हुए हैं, जिनसे अपने पूर्वजों की दीर्घ दृस्टि का पता चलता है । जूनागढ़ का सुदर्शन तालाब, जो आज लुप्त हो गया है, लेकिन ऐतिहासिक लेखों में जिसका जिक्र मिलता हैए वह ऐसी सब से पुरातन रचना है। सम्राट अशोक के सूबे ने यह बनाया था। यह तालाब कई बार टूटा, जिसे बाद में राजाओं ने अपने खर्चे से पुनः निर्मित किया । लोग, पशु और कृषि में इस तालाब का पानी प्रयोग होता था ।
इसके बाद जल संचय हेतु कुंड की रचनाएं हुईं। गुजरात मे सबसे पुराने कुंड में से एक लडची माता कुण्ड है, जो कि रोडा जी, साबर कांठा में है। मोढेरा के सूर्य मंदिर का कुंड विशाल एवं भव्य है । ब्रह्मकुंड, शीहोर भी काफी बड़ा है, जहा फिल्म सरस्वती चंद्र के एक गीत का फिल्मांकन हुआ है । गौरी कुंड वडनगर, शिवकुण्ड कपडवंज, शक्ति कुंड, आखज और दामोदर कुंड, जूनागढ़, कलेशरी का कुंड और गंगवो कुंड देदादरा गुजरात के अन्य प्रसिद्ध कुंड है।
देदादरा के दक्षिण में बना है गंगवो कुंड देदादरा। फारबस की रासमाला में लिखा गया है कि इस कुंड पर सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह ने तोरण बांधा था। तब से पहले ईसा की 9 वीं सदी के अंत में या दसवीं सदी की शरुआत में यह कुंड और मंदिर निर्माण हो चुके थे। पुरातत्वविद दशरथ वारोतारिया के अनुमान के मुताबिक यह कुंड और मंदिर नौंवी सदी के अंत मे या दसवीं सदी कि शुरुआत में निर्माण हो चुके थे। मतलब यह निर्माण पूर्व सोलंकी कालीन है । इस हिसाब से यह कुंड एवं मंदिर ग्यारह शताब्दी पुराना है। नौंवी, दसवीं सदी में निर्मित यह कुंड 16 मीटर लंबा और 12 मीटर चौड़ा है । इस कुंड के चारो ओर छोटी उंचाई की दीवार है। कुंड में पट्टशाला की रचना है । पट्टशाला की चारों ओर चार दिशा में कंठद्वार के पास चौकियों की रचना है। इस कुंड के अंतरंग में चार देवालय हैं। इन मंदिरों के आगे मुख मंडप की रचना हैंए जहां पट्टशाला समाप्त होती गई, वहां से 5.6 सोपान के नीचे दूसरी पट्टशाला है। कुंड के सोपान के पास छोटे छोटे मंदिर आकार के गवाक्ष है। कुंड में उतरने की रचना विशिष्ट प्रकार से निर्मित है।
यह कुंड पूर्व सोलंकी कालीन कुंड का उत्तम नमूना है । इससे पहले का कुंड देखना हो तो रोड़ा का लडचि माता का कुंड है, जो की आठवीं शताब्दी का मन जाता है, और इसके बाद का सोलंकी कालीन कुण्ड देखना हो तो कपडवंज, मोढेरा, कलेश्वरी और अखज के कुंड है। करीब पांच सौ साल पुराना पोलो के आभापुर मंदिर समूह का छोटा सा कुंड भी इसी श्रुनखला की ताजातरीन कड़ी है ।
गंगवो कुंड की मौजूदा हालात उतनी अच्छी नही है। पुरातत्व विभाग को इस पर थोड़ा ध्यान देना चाहिए। वैसे पुरातत्व विभाग सभी धरोहर में उसकी नाम पट्टिका और सूचना पट्टिका लगाकर अपना काम पूर्ण हुआ ऐसा मानकर चलता है, एसा प्रतीत होता है । धरोहर के सुरक्षण के लिए कोई इंतज़ाम नही होता है । स्थानिक लोग में से कुछ अज्ञानी रख रखाव करने के बजाय धरोहर को नुकसान पहुचाते है । कुछ जगह तो लोग लघु और गुरु दोनों शंकाओ का समाधान ऐसी जगहों में करते है । स्थानीय लोगो को भी अपनी धरोहर के रखरखाव के लिए आगे आना चाहिए ।