कथा एक किताब चोर का

सतीश छिम्पा

लेखक युवा साहित्यकार है। 

पता – वार्ड न.11, त्रिमूर्ति मन्दिर के पीछे, सूरतगढ़

कम नही होता है पन्द्रह (अठारह वर्ष, किताब छपने से तीन साल पहले लिखने लगा था।) सालों का सफ़र। बहुत से कड़वे- मीठे अनुभवों के साथ ही जहरीले, जहर बुझे अनुभव भी मिले हैं मुझको इस साहित्यिक यात्रा में। रचनाओ का पत्र पत्रिकाओं में छपना या किताब का छपना इतना महत्वपूर्ण नहीं था मेरे लिए जितना महत्वपूर्ण आदरणीय प्रमोद कुमार शर्मा और राजेश चड्ढा जी और मनोज कुमार स्वामी जी के मार्गदर्शन और प्रोत्साहन के कारण अध्ययन की ओर मुड़ना। ये तीन गुरुजन मेरे जीवन के अभिन्न हिस्से हैं। पढ़ने की बहुत तेज गति और किताब चयन का दृष्टिकोण मुझे इन्ही से मिला। इसलिए यह मैं गर्व से कह सकता हूँ कि अपनी इस इकतीस बत्तीस साल की उम्र तक मैने बुरी या औसत किताबें बहुत कम, मजबूरी में ही पढ़ी होगी, अन्यथा विश्व साहित्य और भारतीय भाषाओं के साहित्य की अनमोल कालजयी रचनाओं का मुझ तक आना मुश्किल जरूर था लेकिन नामुमकिन नहीं था। प्रह्लाद जी पारीक का इस श्रंखला में आना मेरे लिए और ज्यादा गजब अनुभव रहा। आज फेसबुक के प्रदूषित दौर में जब बहुत आसानी से और सस्ते में या निशुल्क भी किताबें उपलब्ध हैं, तब भी ये उस स्तर की नहीं हैं जिस स्तर की हमने उस समय मे हासिल की, पढ़ी और मुहिम का हिस्सा हुए, मतलब साहित्य पढ़कर बस कागद काले नहीं करने बल्कि जनांदोलनों में शरीक होते होते, भटकते उलझते हुए एक सही पॉलिटिकल लाइन को चुनना और उस पर काम करना भी महत्वपूर्ण था। खालिस बुद्धिजीवी दिमागी व्यभिचार के अलावा कुछ भी नहीं है। इसी प्यास के प्रचण्ड उफान के वश अनगिनत चोरियां की, जाने कितनी ही किताबें चोर चोर कर पढ़ी है मैंने ।

     किसी महान ऐतिहासिक घटना की किताब में जीवन के समांतर जादुई जीवन चलता और दौड़ता रहता है। किताब के भीतर गजब तरह का सम्मोहन, जादू, सम्मोहन या कहूँ तिलिस्म होता है।  आपकी बिलकुल इच्छा ना हो भले, या आप किसी और काम या यूं ही बेमतलब या, किसी के साथ गये भर ही हो या आपकी जेबें फटी हुई हो या जो भी कारण हो….  वो कारण खत्म हो जाता है और किताबें इस जादुई तरीके से आपकी तरफ़ देखती है कि जैसे कोई नवयौवना चेत के महीने में तड़फ से ताक रही हो प्यार के लिए और फिर आपका जान बूझकर पत्थर किया गया दिल पिघल जाता है। आप ललचाई निगाहों से कभी “आदि विद्रोही” तो कभी “रंगां दी गागर” या कभी “लहू दी लो” की ओर देखते हैं। आपकी नज़रें वहां ठहर जाती है। वे ठहरी रहती है कि अचानक आपके कदम उस ओर बढ़ जाते हैं और आपकी अंगुलियां किताब के खुशबूदार रहस्यमयी पन्नो पर फिसलने लगती हैं। आपका मन उसको पढ़ने के लिए ललचा उठता है और कुछ देर में जादू में बंधकर आप उसको ख़रीदने के लिए बढ़ते हैं कि फिर एक और किताब, फिर और…और…और… और इस तरह आपके पास अनेक किताबें हो जाती हैं, जिन्हें ब्लैक टी पीते हुए आप अकेली रातों में पढ़ते हुए फिर से नई किताबों की संगत की तैयारी करते हैं.. लेकिन मैं तब खरीद नहीं पाता था।

         किताबों के इस नशे में मुझको किताबों की दुनिया का सबसे बड़ा चोर, लुटेरा, चार सौ बीस और ठग बना दिया था। यहां तक कि राजस्थानी के युवा और चर्चित कवि विनोद स्वामी ने पंचायती धर्मशाला, श्री गंगानगर में किसी बड़े सम्मेलन में किताबो की प्रदेशनी लगाई थी। लास्ट दिन सुबह पता लगा कि चार किताबें कम है  इधर उधर में वे बात कर ही रहे थे कि किसी के जाने क्या याद आया और कोई एक नाम लेकर उसने कहा, वो ले गया था, मगर किताबें मेरे पास थी, और अब भी है शायद भविष्य में वे ना रहे।

      लेकिन बात यह भी एक है कि व्यक्तिगत द्वेष रखने वाले अक्सर इसी को तर्क मानकर जवाब देते हैं, आत्ममुग्ध ना समझा जाऊं तो कहूंगा कि किताबो की क्वालिटी मुझे बेहतरीन मिली है। आज तक कोई भी घटिया किताब नहीं चुराई मैंने, बस एक बार, सिर्फ एक बार और वो एक बार जिसने एक ही बार मे मुझे वो सबक सिखा दिया कि मैं इस तरह की मूर्खता कभी ना करूं। हुआ यूं कि अभी कुछ महीनों पहले मैं जुजुर साहब नांदेड़ एक्सप्रेस से वर्धा जा रहा था। इटारसी उतर कर मैं दूसरी गाड़ी पकड़ता हूँ क्योंकि आकोला वाला राह काणा है। गाड़ी आने में कुछ समय था तो मैं बुक स्टाल पर रखी और चर्चित लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ की चर्चित किताब ‘मल्लिका ‘ खरीद लाया…. और वर्धा पहुंचता उससे पहले ही दिमाग खराब हो गया, फेंक देता मगर फिर सोचा कि इसमें एक महान रचनाकार की कहानी है, जिसको समकालीन चर्चित लेखिका पिरो या साध नहीं पाई। बहुत ज्यादा दुख हुआ उस किताब को खरीदकर, जाने क्यों लोग चर्चित हो जाते हैं।

     किताबें सिर्फ साहित्य नहीं क्योंकि मैं खालिस बौद्धिक व्यक्ति नही हूँ, सोशल पोलिटिकल एक्टिविस्ट हूँ तो मुझे राजनीतिक अर्थशास्त्र से आगे हर तरह का मानवीय वैज्ञानिक दर्शन पर ज्यादा ध्यान देना पड़ता है। व्यवहार में ढालकर इसको स्थाई करने का जोर हो तो ही ठीक है…. क्योंकि यह भी तो सवाल खड़ा रहता है पाठक के सामने कि, “हम कौनसी या किस तरह की  किताबें पढ़ें ?” केवल सहित्य पढ़ना मेरी रुचि नहीं है। दर्शन नही पढोगे तो साहित्य अध्ययन का अचार थोड़े डालना है। उसके बिना यह निराधार है। सूरज पाल सर की बात से सहमत होते हुए यही कहूंगा कि, “सबसे ज्‍यादा वे किताबें पढ़ी जाती हैं जो पाठक कहीं से चुरा कर लाता है। किताब चुराने का  जोखिम तभी उठाया जायेगा जब किताब नजर तो आ रही हो लेकिन हमारे पास न हो।”, इसमें रुचि, स्तर और कल्चरल पॉलिटिकल इफ़ेक्ट को भी ध्यान में रखता हूँ।   

         उन्ही दिनों दिमाग मे खतरनाक खुराफातों ने जन्म लिया। जिसकी वजह से कई बार गाली, झिड़की और बेइज्जती भी सही। हुआ यूं कि मैंने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की, “नागार्जुन सहित्य सम्मान” के नाम से और हंस, कथादेश, आदि अनेक पत्र पत्रिकाओं में भेज दिया… जानता था कि किताबें आएगी जरूर, पुरस्कार का लालच किसे नहीं हैं।…… और फिर होने लगी डाक द्वारा किताबों की बरसात। अनेकानेक किताबें आई, लगभग सात या आठ सौ के आस पास। मेरी अध्ययन गति बहुत ज्यादा तेज थी जो अब सिर्फ तेज है। आज के लाजवाब रचनाकारों जैसे प्रमोद कुमार शर्मा, दुर्गेश, एच. आर. हरनोट,  हबीब कैफ़ी, उर्मिला शिरीष, रत्न कुमार सांभरिया, राज बुद्धिराजा, धीरेंद्र अस्थाना आदि बहुत से नाम थे। किताबे आती गई, आती गई और हो गई बहुत ज्यादा, किताबें तो चलो  एकत्र हो गई लेकिन बहुत से लेखक टेलिफोन (पड़ोस sसे सहारण परिवार का नम्बर दिया होता था।) कॉल कर कर के उन्होंने स्यान ले ली।

        मेरे भीतर एक नहीं कई मिजाज़ के सतीश रहते हैं। मुलायम और दया भाव वाला सतीश, किसी भी बात जो दिल पर लगी हो, रो देता है। किसी दुख पर दुखी तो मजे की बात पर मजा, खूब हंसता है, अचानक खुले बालों वाली वो खूबसूरत लड़की जिसको कई कई दिनों से सपनो में प्रपोज़ करता है, दिखी तो आंख पोंछ कर आगे निकल लेगा। यही हुआ जाग गया ईमानदार और लेखको की भावनाओ से लिए खिलवाड़ से शर्मिंदा हुआ जा रहा था। जाने कैसे बीस बाइस मिनिट तक रोया ही रोया। फिर मुस्कुराते हुए उठा और लग गया काम मे। बहुत रोता हूँ ज्यादातर अकेलेपन में, उदास हताश, जैसे मेरा कहीं कोई नही है।

        उस समय वैसे डर  भी बहुत था कि कहीं पकड़ा गया तो पुलिस केस ना हो जाए, लेकिन चलता रहा। फिर एक दिन  एक और विज्ञप्ति जारी हुई, “इस वर्ष का नागार्जुन साहित्य सम्मान भेराराम (जाने क्या नाम दिया था फर्जी में ही) को फलां फलां कृति पर घोषित किया गया है। .. और उन्ही पत्रिकाओं में भेज दिया, और बस, सब काम जम गया था। अब कोई कॉल नहीं आती थी। और मैं मजे से पढ़ने लिखने लग गया। …. बाद में जैसा ऊपर बताया कि  मुझे इस कृत्य पर पछतावा भी बहुत हुआ कि मैं एक रचनाकार के साथ धोखा और गद्दारी कैसे कर सकता हूँ। यह गलत था बहुत गलत, गिरी हुई हरकत… जिसका कन्फेशन भी किया मगर यह अपराध बोध ज्यादा नहीं रहा, हवा हो गया था। और मैं फिर से लय में आ गया। उस अंतराल के बाद पहली कार्यवाही- विमल गुलाटी के निजी पुस्तकालय में सेंध मारकर की थी।

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