डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
पता- ई-2/211, चित्रकूट, वैशाली नगर के पास, जयपुर
बहुत त्रासद समय है. लगता है जैसे हम सब एक अंधी सुरंग में फंसे हैं और उजाले की कोई किरण दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रही है. किसी ने नहीं सोचा था कि ऐसा होगा. पिछले सौ बरसों में तो दुनिया के सामने स्वास्थ्य को लेकर इतना बड़ा संकट आया नहीं. लेकिन क्या यह बात अजीब नहीं है कि जहां हम सब इतने बड़े संकट के बोझ तले दबे हैं, वहीं हमारे सोशल मीडिया पर जो संदेश सबसे ज्यादा आ जा रहे हैं वे हास्य और व्यंग्य परक है! थोड़ी-थोड़ी देर में आपका मोबाइल आपको चेताता है कि वॉट्सएप पर नया संदेश आया है, और जब आप उस संदेश को देखते हैं तो पाते हैं कि वह या तो कोई लतीफा है, कोई मीम है, कार्टून है या हंसाने वाली वीडियो क्लिप है. ऐसा ही अन्य सोशल मीडिया माध्यमों पर भी हो रहा है. बेशक अन्य तरह के संदेश भी आ रहे हैं. भले लोग हर सुबह फूलों की छवि, भगवान की तस्वीर या गुड मॉर्निंग का संदेश अब भी पूरी निष्ठा से भेजते हैं. आजकल बहुत सारे सेवा भावी बहुत सारे दैनिक अखबारों की पीडीएफ भी भेजने लगे हैं. शुरु-शुरु में कोरोना का सामना करने के लिए घरेलू चमत्कारी उपायों की भी बाढ़ आई थी, लेकिन अब वैसे संदेश तो आने कम हो गए हैं.
क्या यह बात अजीब नहीं है कि जहां सब को साक्षात यमराज सामने खड़े नजर आ रहे हैं, लोगों को, जिनमें हम खुद भी शामिल हैं, हंसना-हंसाना सूझ रहा है? यह कैसा घालमेल है कि एक तरफ हम टीवी या अखबार में कोरोना से ग्रस्त लोगों की बढ़ती संख्या और उससे पराजित होकर यह दुनिया छोड़ जाने वालों की उदास और अवसाद ग्रस्त कर देने वाली खबरें देखते-सुनते हैं, लगभग उसी समय किसी लतीफे, किसी मीम, किसी कार्टून किसी वीडियो को देखकर जोर का ठहाका भी लगा देते हैं? मैं समझना चाहता हूं कि आखिर क्यों इस उदास समय में ऐसी हंसने हंसाने वाली सामग्री का ज्वार आया हुआ है!
वैसे हास्य को लेकर पहले भी काफी सोच विचार होता रहा है. अगर आप प्राचीन यूनानी दार्शनिकों की बात करें तो वे हास्य को एक खतरनाक प्रवृत्ति मानते थे. ऐसी प्रवृत्ति जो सत्ता को कमतर करके देखती और समाज की व्यवस्था को आहत करने का प्रयास करती है. उस समय जो सत्तावान थे उन पर हंसना गुनाह माना जाता था (और आज भी कम से कम उन देशों में तो ऐसा ही है जहां स्वेच्छाचारी अथवा एकतांत्रिक शासन व्यवस्था है)! हां, प्रजातंत्र में जरूर इस बात को जरूरी और उपयोगी माना जाता है कि जो सत्ता में हैं उनका भी उपहास किया जाए. यहीं जवाहर लाल नेहरु के उस विख्यात संवाद को भी याद कर लिया जाना चाहिए जो कार्टूनिस्ट शंकर के साथ हुआ था. नेहरु ने उनसे कहा था कि तुम किसी को भी मत बख्शना, मुझे भी नहीं. न्यू लिबरेशन मूमेण्ट के चार स्तम्भों में से एक माने जाने वाले प्रख्यात लेखक क्रिस्टोफर हिचंस ने अपने एक लेख में कहा है कि हास्य तो मानवता के उस रक्षा कवच का एक हिस्सा है जो जीवन के मनहूस यथार्थ से उसकी रक्षा करता है. लेकिन सोचने की बात यह है कि क्या हास्य का काम केवल सत्ता को कोंचना भर है? क्या उसका और कोई गहरा मकसद भी हो सकता है? इस सवाल का जवाब ढूंढने निकलते हैं तो हमें मेरीलैण्ड विश्वविद्यालय के एक दिवंगत प्रोफेसर रॉबर्ट आर प्रोवाइन की याद आती है. इन्हें दुनिया के शीर्षस्थ हास्य विशेषज्ञों में गिना जाता है. प्रोफेसर प्रोवाइन अपने करीब एक दशक लम्बे शोध कार्य के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि हंसने का असल मकसद लोगों को परस्पर जोड़ना है. उन्होंने समझाया कि जब हम दूसरों के साथ मिलकर हंसते हैं तो इससे हमें स्वीकृति का सुख मिलता है. इस स्वीकृति का कि वे और हम एक हैं. इस तरह हास्य हमें आपस में जोड़ता या बांधता है.
सोचिये, क्या ऐसा ही इस कोरोना संकट के समय नहीं हो रहा है? हम संकट से त्रस्त होते हैं, फिर जोर से हंसते हैं, फिर उससे जूझने को कमर कस लेते हैं और यह करते हुए आपस में जुड़ने लगते हैं, भले ही अपने एकांत में रह रहे हैं तब भी. क्या हुआ जो हम इस कोरोना के दैत्य को पराजित नहीं कर पाये हैं, हास्य के इन अलग-अलग रूपों के कारण अपने जैसे संकट ग्रस्त दोस्तों और परिवार के लोगों के साथ एकजुटता तो महसूस कर रहे हैं! यह एकजुटता का एहसास ही हमारा रक्षा कवच बना हुआ है. जब आप हंसते हैं तो पल भर को ही सही, सारे गमों को, चिंताओं को भूल जाते हैं और आपमें नई ऊर्जा का संचार हो जाता है. किसी लतीफे को पढ़ते हैं, उसे पढ़कर हंसते हैं और फिर यह सोचते हैं कि जिसने उसे आपको भेजा है वह भी इसे पढ़कर कितना हंसा होगा, और जिसे आप यह भेज रहे हैं, वह भी कितना प्रसन्न होगा दृ यही सारी कल्पनाएं आपको ताजगी और ताकत देती हैं. आपको एहसास होता है कि भले ही संकट कितना भी बड़ा क्यों न हो, आपके पास हंसने की जो क्षमता है वह आपको उस संकट के आगे ताकतवर साबित करती है.
मुझे लगता है कि आज हम जो पहले से ज्यादा हास्य सामग्री का आदान-प्रदान कर रहे हैं वह इसी लॉकडाउन और उसके उत्तर काल में भी, जबरन हम पर लाद दिये गए एकांत वास से लड़ने का हमारा तरीका है. हम सब भयाक्रांत हैं. भय हम सबका साझा शत्रु है और इस शत्रु से हम अपने इस हास्य के हथियार के माध्यम से जूझ रहे हैं. क्या हुआ जो हम अपने घर की चार दीवारी से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं, न जाने कहां-कहां रह रहे अपने परिजनों के साथ मिलकर ठहाके तो लगा रहे हैं! क्या हुआ जो हम एक दूसरे के घरों में नहीं जा-आ पा रहे हैं, हमारी मुस्कान, हमारे ठहाके, हमारे अट्टहास तो जा आ रहे हैं. हम जुड़े हुए हैं. आज आभासी दुनिया में जुड़े हुए हैं, कल यह आभासी दुनिया असल दुनिया में भी तब्दील होगी, इसका हमें पूरा विश्वास है.
यह सही है कि जितनी हास्य सामग्री हमें मिल रही है वह सारी की सारी स्वस्थ नहीं है. उसमें भी अनेक विकृतियां हैं. कभी वह कमजोर, वंचित और पीड़ित का उपहास करती है तो कभी जाने या अनजाने में हमारे सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचाती है. कभी वह इस बड़ी लड़ाई में जूझ रहे सैनिकों का उपहास करती है तो कभी इस लड़ाई में काम लिये जाने वाले औजारों पर अनावश्यक प्रतिकूल टिप्पणी करती है. इन सबसे बचा जाना, इनसे दूरी बरतना बहुत जरूरी है. इसीके साथ यह भी जरूरी है कि हास्य को खुले मन से, बिना किसी दुर्भावना के स्वीकार किया जाए. किसी भी मजाक की अनेक तरह से व्याख्याएं की जा सकती हैं. अगर मन खुला होगा तो हास्य को हास्य की तरह स्वीकार कर उसका आनंद लिया जा सकेगा.
अब यही देखिये ना कि इन दिनों जो लतीफे आ रहे हैं उनमें से अधिकांश के मूल में पुरुषों की दुर्गति है, जैसे कि उन्हें घर का काम करना पड़ रहा है. अगर इन लतीफों को स्त्रीवादी नजरिये से पढ़ेंगे तो हम जिन नतीजों पर पहुंचेंगे वे हमें इनका आनंद नहीं लेने देंगे. इसलिए मैं कहता हूं कि लतीफों के हास्य का आनंद लेने के लिए मन का खुलापन बहुत जरूरी है. अगर आपको भी लगता हो कि गम्भीर बातें बहुत हो गई, तो कुछ बेहतरीन लतीफों का आनंद लीजिए. यह समय वर्क एट होम का है. किसी कर्मचारी को उसके बॉस ने गुस्से में फोन किया और यह कहते हुए अपनी नाराजगी जाहिर कीरू “मैंने कल तुम्हें फोन किया था. तुम्हारी पत्नी ने कहा कि तुम किचन में काम कर रहे हो. तुमने मुझे बाद में फोन क्यों नहीं किया?” कर्मचारी ने जवाब दिया, “सर मैंने फोन किया था. लेकिन आपकी पत्नी ने जवाब दिया कि आप कपड़े धो रहे हैं.” इसी तरह एक अन्य लतीफे में पत्नी पति से आग्रह करती है कि वह शेव बना ले. पति चिढ़कर कहता है कि मेरी बढ़ी हुई शेव से तुम्हें क्या दिक्कत है? पत्नीरू “कुछ नहीं. कल पड़ोस वाली भाभीजी पूछ रही थी कि तुम्हारे यहां जो बाबाजी आए हुए हैं वे कोरोना का झाड़ा भी डालते हैं क्या?” किसी ने बड़ी रोचक बात कही है, कि कोरोना का वायरस लम्बे समय तक नहीं रहने वाला है. जब इसका कारण पूछा गया तो जवाब मिला, इसलिए कि वह मेड इन चाइना है! एक और बंदे ने उन लोगों की खबर ली है जो लॉकडाउन या कर्फ्यू के कारण घर में बंद रहने से व्यथित हैं. उसका कहना है कि हमारे बाप दादे तो युद्ध के मैदान में भेजे जाने पर भी इतनी हाय तौबा नहीं मचाते थे जितनी हम अपने घर की सुरक्षा में सोफों पर बैठ कर रामायण महाभारत देखते और नेटफ्लिक्स का आनंद लेते हुए मचा रहे हैं! बात तो सही है! चीजों को सकारात्मक नजरिये से क्यों न देखा जाए?
तो हंसते रहें, खुश रहें, घर के भीतर रहें और सुरक्षित रहें. संकट के ये दिन भी बीत जाएंगे!