लौटना (कोरोना काल में)

सुमन केशरी  

लेखिका षिक्षाविद् है। पता- बी/5ए, कैलाष काॅलोनी, नई दिल्ली

लौट रहे हैं झुंड के झुंड
सपनों की गठरी बांध
कंधों पर शव-सा लादे
वे लौट रहे हैं
जड़ों की ओर
जहाँ गड़ी है उनकी नाभिनाल


किंतु
क्या सचमुच
कभी कोई लौट पाया है
जड़ों की ओर?
पेड़ कितनी भी कोशिश करे
कभी लौट नहीं पाता जड़ों में वापस
न लौट पाती है नदियाँ
स्रोत में फिर कभी
यह तो जड़ ही है जो
जिंदा रखती है डालियों फुनगियों को
स्रोत नदियों को और स्मृतियाँ मनुष्य को


वरना
जिस दिन जड़ें सींचना बंद कर देती हैं
डालियों-फुनगियों को
उस दिन जड़ें भी समूल नष्ट हो जाती हैं
नदियाँ सूख जाती हैं
दिनों-दिन धुंधलाती लकीर छोड़ती


किंतु
वे तो लौट रहे हैं
जड़ों की ओर
बोली-बानी की डोर थामे
स्मृतियों की डगर से
इस आस में कि कोई तो होगा
जो उनको सुनेगा गुनेगा
और बचा लेगा
उन्हें ढहने से
इस आपाद काल में
जब कोई नहीं साथ
वे जानते बूझते भी भुला देना चाहते हैं
कि कोई नहीं लौटता जड़ों की ओर वापस कभी
लौटेगा भी तो नया पेड़ बन कर बरगद की मानिंद
पर वे यह भी जानते हैं कि वे बरगद नहीं
वे तो अनाम लोग हैं
जो छोड़ गए हैं मिट्टी को
रोटी की तलाश में
और उनकी छोड़ी मिट्टी में
एक और बीज उग गया है
खालिस उसी जमीन का
पर जब वे देखते हैं
उमगती माँ के कदमों को थमते
भाई के माथे पर खिंची चिंता की रेखा
बहन को माँ के पीछे छिपते
भाभी-भतीजों के चेहरों पर प्रश्नों के जाल उभरते
और फिर सभी के चेहरों पर
असमंजस और भय के बादल छा जाते हैं
एक अलंघ्य दरार दरक जाती है
उनके बीच
तब
वे उस पेड़ की तरह धरती पर गिरते हैं
जो सिकुड़ती जा रही मिट्टी में
अपनी जड़ें फैला न पाने के चलते
जरा-सी तेज हवा से
भरभरा कर गिर जाता है
आकाश ताकता!
उखड़े पेड़ की खाल पर उगे फफोलों से
उनके पाँव देखें हैं कभी?
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