निर्णय

भारती शर्मा

84, दुर्गापुरी, कृष्णा नगर, मथुरा उत्तर प्रदेश

फर्श की सतह पर पानी बिखरा देखकर सरिता कामवाली पर बरस रही थी,

‘‘आँखें और दिमाग दोनों खोलकर काम किया कर। इतनी देर से फर्श पर पानी गिरा है, अब तक साफ क्यों नहीं किया?अगर बहू इस ओर आती तो उसका पैर भी फिसल सकता था।‘‘

आवाजें सुनकर भव्या भी अपने कमरे से बाहर निकल आई। उसे देखते ही सरिता का गुस्सा उड़नछू हो गया और स्वर में मिश्री सी मिठास घुल गई, 

‘‘भव्या, बेटा नाश्ते के बाद ज्यूस तो ले लिया था?‘‘

भव्या ने स्वीकृति में सिर हिला दिया।

‘‘अब खाने पीने का विशेष ध्यान रखना है, जिससे बच्चे को भरपूर पोषण मिले। वैसे आज तो तुम्हें डॉक्टर के पास जाना है न?‘‘

‘‘मम्मीजी किसी और दिन चले जाएंगे। आज मुझे थोड़ा अच्छा महसूस नहीं हो रहा…।‘‘ भव्या ने धीमे स्वर में अपनी बात रखने का प्रयास किया, जिसे सरिता ने बड़े प्यार से नकार दिया।

‘‘बेटा डॉक्टर से अपॉइंटमेंट ली जा चुकी है। मिलिंद भी लंच में आने वाला है। थोड़ी देर आराम कर लो, बेहतर महसूस करोगी। लंच का मैं संभाल लूंगी।‘‘ 

भव्या चुपचाप अपने कमरे में आ गई। उसे उसने लेटने की कोशिश की किंतु एक अनजान डर उसे जकड़ रहा था। ऐसे ही जाने कब उसकी आँख लग गई। मिलिंद ने आकर उसे जगाया। 

‘‘भव्या, उठो! चलो लंच करते हैं। अब तबीयत ठीक है?‘‘ 

‘‘हां! मिलिन्द सुनो ना! मुझे डॉक्टर के पास नहीं जाना।‘‘ 

‘‘पर क्यों?जरूरी है बाबा।‘‘ 

‘‘बस मन नहीं है इस बार।‘‘ उसने ऊपर से बोला किंतु मन हो रहा था कि कह देय ‘मैंने मम्मी की सारी बातें सुन ली हैं गलती से। मैं जानती हूँ कि तुम किसी रूटीन चेकअप के लिए नहीं बल्कि मेरी कोख में झांककर देखने को लेकर जा रहे हो। यह पुष्टि करने के लिए कि इस घर का वारिस है या नहीं। और तुम भी अपनी मां का दिल रखने के लिए यह कर रहे हो।‘ किंतु ये शब्द उसके गले में ही अटक कर रह गए और उसका प्रतिरोध भी। 

वह डॉक्टर के सामने आंखें बंद व उंगलियां आपस में काटे बैठी थी और मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी कि उसकी आशंका सत्य में ना बदले। उसकी हथेलियां पसीज रही थीं, दिल तेजी से धड़क रहा था। सोनोग्राफी के समय डॉक्टर ने उसे बच्चे की धड़कन सुनाई तो वह सब कुछ भूलकर एक बच्चे की तरह खुश हो उठी। यह उसके लिए एक अद्भुत अनुभव था। उसने अपनी कल्पनाशक्ति से अपने बच्चे की छवि भी सृजित कर ली। किंतु जैसे ही पेट पर दबाव बढ़ा, वह वर्तमान में लौटी… और इस बार उस नन्ही जान को खोने का डर साथ लिए हुए थी। हमारा डर अक्सर लुकाछिपी ही तो खेलता है। 

मिलिंद की बाँह का सहारा लेकर वह बाहर आई। उसके पास की बेंच पर एक ग्रामीण गर्भवती महिला बैठी थी जिसकी बारी उसके बाद की थी। उसका पति कुछ समझाकर अंदर ले गया था। भव्या के मन में एक गहरी टीस उठी… उसे सब समझ आ गया था। 

अंदर से वह औरत जोर-जोर से गुस्से में चिल्लाती हुई बाहर निकली। नर्सें व उसका पति उसे समझाने व शांत करने की भरसक कोशिश कर रहे थे। किंतु वह एक बात भी सुनने को तैयार नहीं थी। 

‘‘डॉक्टर तो भगवान का रूप होता है, और तुम यह नीच काम कर रहे हो। और तू झूठे! झूठ कहकर लाया मुझे यहाँ! अब जांच कराके मेरी बच्ची को ही मारने चला है। मैं कभी ना होने दूँ ये।‘‘ वह जोर-जोर से सबको खरी-खोटी सुना रही थी। उसकी आवाज इतनी बुलंद थी कि आसपास से सबका ध्यान उसपर ही जा लगा। भव्या के हृदय को अति सुकून का अनुभव हो रहा था। लग रहा था जैसे उसके गले से शब्द आजाद हो गए हों। 

‘‘चुप रह! तमाशा मत बना। तीन-तीन बेटी पैदा करके मेरे माथे मढ़ दी हैं, एक और नहीं। चुपचाप भीतर चल।‘‘ 

वह लगभग गुर्राता हुआ उसे खींचकर ले जाने लगा। किंतु वह औरत हिली तक नहीं। बोली, ‘‘तेरे भरोसे नहीं हैं मेरी बच्ची… खुद पाल सकूँ मैं। पर ये पाप न करूंगी। और वैसे भी कोख मेरी तो फैसला भी मेरा।‘‘ दो टूक फैसला करके वह अपना बैग उठाकर वहाँ से चली गई। चारों ओर एक शून्य और ढेर सारे सवाल छोड़कर। 

उस समय मिलिंद ने वहाँ रुककर रिपोर्ट का इंतजार करना उचित नहीं समझा। वह भव्या को लेकर निकल गया उसका मूड ठीक करने को वह मूवी दिखाने ले गया। उसके बाद उसके मनपसंद रेस्टोरेंट लेकर गया। 

अगले दिन रिपोर्टस् मिली और भव्या की आशंका सौ फीसदी सच हो गई। उसकी कोख में बेटी थी। वह दोनों तो प्रसन्न थे किंतु सरिता को यह कदापि स्वीकार्य ना था। उन्हें हर कीमत पर पहली संतान पुत्र ही चाहिए था। उन्होंने इस कारण से बहुत कष्ट झेले थे जीवन में। चार पुत्रियों के कारण एक समय उनको घर से वापस मायके भेज दिया गया था। कई साल के बाद उनको मिलिन्द जन्मा था। अब उनकी स्वयं की सोच भी वैसी बन चुकी थी, अतः किसी भी तरह का जोखिम लेना नहीं चाहती थी। उन्होंने बेटे बहू को अपना फैसला सुना दिया था। 

भव्या स्वयं को बेहद असहाय महसूस कर रही थी। वह इस प्रकार अपनी अजन्मी बच्ची को कैसे खो देती। रो्-रोकर उसकी आँखें सूज गईं थीं। मिलिन्द उसे चुप कराने की हरसंभव कोशिश कर रहा था। किंतु वह भी जानता था कि मम्मी निश्चय कर चुकी हैं, जो बदलना असंभव सा है। वह स्वयं ऐसा नहीं चाहता था क्योंकि उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह बेटी है या बेटा। उनके लिए वह बस उनके कलेजे का टुकड़ा है। किंतु उसमें मम्मी के विरोध का नहीं साहस नहीं था और भव्य की पीड़ा भी वह समझ सकता था…।

‘‘आपने वादा किया था… कि हमारा बच्चा सुरक्षित रहेगा।‘‘ 

‘‘हाँ भव्या.. पर हम मम्मी को कैसे समझाएँ? जानती हो न उन्हें!!‘‘ वह हताश मुद्रा में बोला। ‘‘ये हमारा पहला बच्चा है। और आखिरकार यह कैसी महत्वाकांक्षा है? क्या यह निश्चित ही है कि इसके बाद मेरी कोख में बेटा होगा? बोलिए।‘‘ 

‘‘मानता हूं.. फिर भी वो मेरी बात सुनने को तैयार नहीं। भव्या इस बार उनकी बात मान लेते हैं, वैसे भी तुम्हें इतनी जल्दी बच्चा नहीं चाहिए था।‘‘ 

मिलिंद ने कह तो दिया किंतु भव्या के हाव-भाव से उसे तुरंत अपनी गलती का एहसास हो गया। लेकिन तीर कमान से छूट चुका था। 

‘‘वाकई तुम ऐसा सोचते हो!! अगर मेरी मर्जी की बात करो तो पहले मुझे एम.बी.ए. पूरी करनी थी। बीच में शादी नहीं करनी थी। पर वह पापा की मर्जी थी। और इसके बाद बच्चे के लिए समय मांगा, पर यह आपकी मम्मी की मर्जी थी। अब जब मैं इसे स्वीकार कर चुकी हूं तो उन्हें यह नहीं चाहिए…। मेरी जिंदगी पर मेरा हक है कि नहीं??‘‘ वह तिलमिला रही थी।

‘‘मिलिंद तुम्हें हॉस्पिटल वाली वह औरत याद है?वह अनपढ़ थी, फिर भी जानती थी कि यह गलत है। तीन बेटियों के बावजूद एक और बच्ची को अपनाने के लिए तैयार थी। हम उस जितनी भी संवेदना नहीं रखते क्या?‘‘

‘‘तो तुम क्या चाहती हो मैं माँ से लड़ जाऊं?उनके फैसले पर सवाल उठाऊं?‘‘ 

‘‘हां मिलिंद। अपनी संतान के अस्तित्व के लिए इतना भी न कर सकोगे?तुम्हें अपनी मां की फिक्र है.. उनको अपनी परंपरा और आकांक्षा की.. और मेरा क्या? मैं पल-पल उसके सपने बुन रही हूँ। उसकी नर्म-नरम हथेलियों का स्पर्श महसूस करती हूँ.. उसकी मुस्कान मेरी आंखों में जैसे बस गई है। मैं अपनी कल्पनाओं में हर रोज उसे जीती हूँ उसे।‘‘ कहते-कहते वह रो पड़ी। उसके शब्द भर्राने लगे। 

‘‘मैं उसे.. हमारी बेटी को दुनिया में लाना चाहती हूँ…। आपको साथ देना है तो ठीक.. वरना मैं अकेली उसके लिए लड़ लूँगी।‘‘ 

मिलिन्द ने भव्या के सिर पर हाथ फेरा। दोनों पति-पत्नी की आँखों में दृढ़ता की परछाई थी। वे जानते थे कि राह आसान न सही पर सही थी। अस्तित्व की लड़ाई थी जो सदैव चलती रहती है। पर उसमें जीत उसी की होती है जो हालातों से हारकर हथियार नहीं ड़ाल देता है। मिलिन्द और भव्या ने निर्णय ले लिया था और अब वे दोनों मिलकर उस निर्णय का भार उठाने के लिए तैयार थे।

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