जरा गौर फरमाएँ

चंद्रकुमार

पता- मायवीय नगर, जयपुर

कुछ बातें हमारे जहन में इतने अन्दर तक घुस आती है कि चाह कर भी उन्हें भुलाया नहीं जा सकता। हमारा दूसरों के प्रति आचरण और उस में आयी खामियाँ भी ऐसी ही बातें हैं जो हम कभी भूल नहीं पाते हैं। मामला जब किन्नरों का हो तो यह बहुत संवेदनशील बन जाता है। कुछ सालों पहले एक राष्ट्रीय दैनिक समाचार पत्र में फौजिया रियाज का लेख ‘खंडित वजूद’ पढ़ते हुए लगा कि हम वास्तव में किन्नरों के प्रति एक दुराग्रह के साथ जी रहे हैं। वे आज जैसे हैं उसमे उनका दोष कम और उनके प्रति हमारे उपेक्षित आचरण का प्रतिफल ज्यादा लगने लगा। फौजिया रियाज का कहना सहीं भी है कि अगर हम उन्हे मनुष्य तक मानने को तैयार नहीं तो फिर उनसे सभ्य आचरण की उम्मीद क्यों करें ? 

लेकिन आदर्शवादी बातें और हकीकत बहुत जुदा होती है। कुछ समय पहले राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में किन्नरों द्वारा मनचाही बख्शीश न मिलने पर एक दंपती से उसके घर में घुस कर बेसलूकी और जबरन बटुआ तक छीन कर भाग जाने की खबरें पढ़ी तो कुछ पुरानी यादें जहन में कौंध आयी। एक विवाह-समारोह में शामिल होने जयपुर गया तो वहाँ किन्नरों के ‘आतंक’ से रूबरू होना पड़ा दृ चैबीस घंटों में दो बार! बारात में जबरदस्ती शामिल होने और दूल्हे की घोड़ी के आगे बदतमीजी करने पर भी जब नेक-बधाई के नाम पर उनकी बेइंतेहा पैसे की माँग पूरी नहीं हुई तो किन्नरों का वह समूह बारात के पीछे-पीछे मुख्य शामियाने तक आ धमका। मुझे अभी तक समझ नहीं आया है कि ये लोग बिन-बुलाए, जबरन क्यों किसी की खुशी में शामिल होना चाहते हैं? अगर वे दुआ के बदले कुछ बख़्शीश की चाह रखते हैं तो जो उनको मिले, उसी से संतोष कर लें! खुशी के मौकों पर तो कोई भी कंजूसी नहीं बरतता। बात अंततः उनकी माँग के मुताबिक कुछ दे कर ही बनती है। उस समय किन्नर जबरन वसूली करने वाले किसी गिरोह से कम नहीं होते। उस रोज भी यहीं हुआ और उनकी माँग के मुताबिक पैसे देने पर ही वे शामियाने से बाहर जाने को राजी हुए। हालांकि उससे पहले वे अपना सारा जुबानी जहर वहाँ उड़ेल चुके थे! यकीन जानिए, वह वाकई कानो में घुस रहे पिघलते शीशे से कम नहीं था। सभ्य आचरण की उम्मीद करना तो बेमानी होता लेकिन वे हर उस हद को पार कर चुके थे जो हाड़-माँस के ढाँचो को इंसान बनाए रखती है। उनके इस आचरण के पीछे जो भी कहानी रही हो लेकिन ऐसी घटना का चश्मदीद उम्र भर उनके खिलाफ मन में घृणा व द्वेष के अलावा और कुछ नहीं रख पाता होगा।

अगले दिन शाम को घर वापसी के लिए रेल में सवार हुआ। आरक्षित डिब्बे में जितनी तसल्ली से किन्नर अपनी मनमानी कर रहे थे, उससे लगा कि इसे रोज का लफड़ा मान टिकिट-निरीक्षक और सुरक्षा कर्मियों ने इनको नजरअंदाज करना ज्यादा मुनासिब समझ रखा है। और करे भी तो क्या! अपनी क्षमता से लगभग दुगनी सवारियों के साथ हमारा आरक्षित डिब्बा शुरुआत के कुछ घंटों तक किसी भी सूरत में आरक्षित डिब्बा लग ही नहीं रहा था। रोज इसी तरह छोटी दूरियों तक सफर करने वाले चिर-परिचित लोगो से भला टिकिट-निरीक्षक क्यों उलझे ? और फिर हमारे देश में जुगाड़ और जान-पहचान भी तो कोई चीज है! टिकिट की जगह अगर उससे कम कीमत पर आप सफर कर सकते है, वो भी आरक्षित डिब्बे में – तो फिर टिकिट की जरूरत कहाँ! बहरहाल, रेलमपेल के इस माहौल में हमारी गाड़ी तय समय से लगभग बीस मिनट बाद आखिर चल पड़ी। गाड़ी को रवाना हुए बमुश्किल दस मिनट ही हुए होंगे कि किन्नरों का एक हुजूम धड़धड़ाते हुए हमारे डिब्बे में घुस आया और पलक झपकते ही मधुमक्खियों के झुंड की मानिंद पूरे डिब्बे में फैल गया। इसके बाद का माजरा यहाँ बयान नहीं किया जा सकता। डिब्बे में मौजूद महिलाओं और बुजुर्गों सहित किसी भी यात्री के पास किन्नरों की बदतमीजी बर्दाश्त करने के अलावा और कोई चारा भी नहीं था। टिकिट-निरीक्षक तो किसी तयशुदा योजना के तहत अगले डिब्बे में जा चुका था। सुरक्षा कर्मी भी हमारे डिब्बे से नदारद थे। अगर वे होते तो भी शायद बेअसर होते अन्यथा नौबत यहाँ तक आती ही नहीं। अश्लील इशारों, भद्दी गालियों और बीच-बीच में यात्रियों से हाथापाई के साथ जिल्लत से भरा एक घंटे का वह सफर नरक से कमतर नहीं था। मैं अपनी सीट पर चादर से मुँह ढाँपे मन ही मन दुआ कर रहा था कि जल्दी से किन्नरों का गंतव्य आ जाए और छाती पर से वह बोझ उतर जाये! महिलाओं को उनके परिवार के सामने बेजा भद्दी गालियाँ, बुजुर्गों के साथ बदतमीजी और युवकों के साथ छीना-झपटी और गालियों का वह दौर हर तरफ से बरसे दस-बीस-पचास रुपयों के नोटों के बाद ही थम पाया। मुझे भी उनकी खदिमत में जबरन पैसे देने पड़े। जिल्लत हुई सो अलग।

अब सोच रहा हूँ कि उनके तिरस्कार का जितना दोषी हम खुद को माने, उससे कहीं ज्यादा अपनी हरकतों से क्या वे स्वंय अपने प्रति घृणा का माहौल पैदा नहीं कर रहे होते हैं? विधि के विधान को हम नहीं बदल सकते, लेकिन अपने व्यवहार-आचरण से सामान्य जिंदगी तो बसर की ही जा सकती है। महज अपने तिरस्कार पर सारा दोष मढ़, किन्नर स्वयं निर्दोष कैसे माने जा सकते है? अगर उन्हे सम्मान नहीं मिल पाया तो इससे उनको यह अधिकार कब और कैसे मिल गया कि वे अपनी मनमानी करे, बदतमीजी पर उतर आए और किसी को भी अपमानित कर दे ? रुग्ण मानसिकता से जीवन जिया नहीं बल्कि जाया किया जाता है। समाज में किसी का भी तिरस्कार बिल्कुल स्वीकार्य नहीं होना चाहिए लेकिन जबरन या बलात् किये गये कार्य भी उसी श्रेणी में आते हैं – कारण चाहे कुछ भी रहा हो। किसी किन्नर या उनके हितैषी तक अगर मेरी बात पहुँच रही हो तो जरा इस पर गौर फरमाएँ!

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