जंग-ए-आजादी में क्रांतिकारियों की भूमिका

डाॅ. कृष्ण कुमार यादव

लेखक निदेशक डाक सेवाएँ, लखनऊ है

पता – निेदेशक डाक सेवाएं, लखनऊ (मुख्यालय) परिक्षेत्र, उ.प्र

भारतीय इतिहास में 1857 की क्रान्ति एक युग परिवर्तनकारी घटना थी। इस क्रान्ति ने लोगों में गुलामी की जंजीरे तोड़ने का साहस पैदा किया। यद्यपि अंग्रेजी हुकूमत ने इस क्रान्ति से निकली ज्वाला पर काबू पा लिया और शासकीय ढाँचे में आधारभूत परिवर्तन करके भारत को सीधे ब्रिटिश क्राउन के नियंत्रण में कर दिया, पर यह कदम लोगों के अन्दर पनप रहे स्वाधीनता के ज्वार को नहीं खत्म कर पाया। देष की तरुणाई अँगड़ाई लेने लगी और ऐसी राष्ट्रीयता की भावना पैदा की जिसने क्रान्तिकारी गतिविधियों को बढ़ावा दिया और समूचे राष्ट्र में चेतना की लहर फैलायी। 1857 की क्रान्ति पश्चात वासुदेव बलवन्त फड़के प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने सशस्त्र क्रान्ति द्वारा अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालकर स्वराज्य प्राप्ति का सपना देखा। अंगे्रजी सरकार की भयग्रस्त स्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि फड़के का बलिदान 17 फरवरी 1883 को अदन जेल में हुआ, लेकिन देश की जनता को इसकी सूचना एक माह बाद दी गयी। 1885-1905 के दौर को भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में उदारवादियों का काल माना जाता है। मूलतः उदारवादी आदर्शोन्मुख यथार्थवादी थे और समय की आवष्यकतानुसार उन्होंने लोगों में देश सेवा और देश भक्ति की भावना जागृत करते हुए राजनैतिक जगजागरण किया। गोपालकृष्ण गोखले द्वारा स्थापित ‘सर्वेन्ट्स आॅफ इण्डिया सोसायटी’ (1905) जैसी संस्थायंे इसी दौर की देन हंै। इसी दौर में 1893 में स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो में अपना प्रखर आध्यात्मिक भाषण दिया, तो 1893 में ही एनी बेसेन्ट भारत आयीं। 1893 में ही 24 वर्षीय गाँधी जी अब्दुल्ला सेठ नाम एक व्यापारी के मुकदमे में दक्षिण अफ्रीका गए जहाँ उन्होंने रंगभेद जैसी बुराई को नजदीक से महसूस किया और कालान्तर में भारत लौटकर राष्ट्रीय आन्दोलन में प्रमुख भूमिका निभायी।

राष्ट्रीय आन्दोलन में लाल-बाल-पाल की त्रिमूर्ति का प्रमुख स्थान है। लोकमान्य तिलक ने जहाँ ‘मराठा’ और ‘केसरी’ पत्रों द्वारा नवजागरण प्रारम्भ किया वहीं गणशोत्सव व शिवाजी उत्सव के माध्यम से राष्ट्रवादी भावनाओं को उभारा। तिलक ने नारा दिया- ‘‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है  और इसे हम लेकर रहेगें।’’ ‘शेर-ए-पंजाब’ नाम से मशहूर लाला लाजपत राय ने नौजवानों में देशभक्ति की भावना जागृत की। 1928 में साइमन कमीशन का विरोध करते हुये उन्होंने लाठियाँ भी खायीं। विपिन चंद्र पाल ने बंग-भंग और उसके विरोध में हुए  बहिष्कार व स्वदेषी आन्दोलन में प्रमुख भूमिका निभायी। लाल-बाल-पाल के चलते ही कालान्तर में महाराष्ट्र, पंजाब और बंगाल भारतीय राष्ट्रीयता के केन्द्र बन गये। अरविन्द घोष भी इस दौर के प्रमुख राष्ट्रवादी नेताओं में से थे। ‘वन्देमातरम्’ और ‘युगान्तर’ पत्रों के माध्यम से उन्होंने नवयुवकों में क्रान्ति की अलख जगायी। विनायक राव दामोदर सावरकर ने ‘अभिनव भारत’ व ‘मित्र मेला’ जैसी क्रान्तिकारी संस्थाओं के माध्यम से जन-जन में क्रान्ति की अलख जगायी। सावरकर सम्भवतः प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने विदेशी वस्त्रों की होली जलायी और वे प्रथम विद्यार्थी थे, जो सरकारी सहायता प्राप्त विद्यालय से देशभक्ति के कारण निष्कासित किये गये थे। उनकी चर्चित पुस्तक ‘द इण्डियन वार आॅफ इन्डिपेन्डेंस’ प्रकाशन से पूर्व ही अंग्रेजी हुकूमत द्वारा जब्त कर ली गयी। उच्च शिक्षा हेतु इंग्लैण्ड जाकर सावरकर ने वहाँ भी भारतीयों में क्रान्ति की आग प्रज्वलित की। इस दौरान इंग्लैण्ड में ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जलयान द्वारा जब उन्हें बड़ी निगरानी के साथ भारत लाया जा रहा था तो अपने जीवन की चिन्ता न करते हुये सावरकर समुद्र में कूद गये, परन्तु फ्रांसीसी तट पर फ्रांस की पुलिस ने उन्हें पकड़कर फिर से अंग्रेजी हुकूमत को सौंप दिया। कड़े पहरे में भारत लाकर नासिक षडयंत्र केस में उन्हें काला पानी की सजा दी गयी पर सावरकर यातनाओं के बावजूद कभी नहीं झुके। सावरकर के भाई नारायण सावरकर ने भी भारत की क्रान्ति के लिए कार्य किया और देशभक्तिपूर्ण कविताओं की रचना के कारण नासिक के जज जैक्सन ने उन पर राजद्रोह का आरोप लगाकर 8 जून 1909 को देश निर्वासन पर काले पानी का दण्ड दे दिया। 

1905-18 के दौर को भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में उग्र राष्ट्रवादी आन्दोलन के रूप में जाना जाता है। लार्ड कर्जन की ‘बाँटो और राज करो’ नीति के तहत 1905 में बंग-भंग की घोषणा के विरूद्ध जबरदस्त प्रतिक्रिया हुयी। 16 अक्टूबर 1905 को पूरे बंगाल में ‘श्षोक दिवस’ के रूप  में मनाने की घोषणा की गई। इस अवसर पर हिन्दू और मुसलमानों ने एक-दूसरे को राखी बाँधकर एकता का अहसास कराया तो रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ‘आमार सोनार बंगला’ गीत लिखा। स्वदेषी, बहिष्कार व निष्क्रिय प्रतिरोध के माध्यम से बंग-भंग का कड़ा विरोध किया गया। 1905 के बाद क्रान्तिकारी गतिविधियों में काफी तेजी से वृद्धि हुयी। बंग-भंग विरोधी आन्दोलन,  जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड, पंजाब में मार्शल लाॅ और असहयोग आन्दोलन के एकाएक वापस लेने जैसी घटनाओं ने क्रान्तिकारी गतिविधियों को काफी प्रोत्साहन दिया। इस दौर पर लोकमान्य तिलक ने लिखा था कि -‘‘भारत में बम के आगमन से भारतीय राजनीति का स्वरूप बदल गया।’’ बंगाल में पी.मित्रा ने 1905 में ‘अनुशीलन समिति’ संस्था गठित की जिससे अरविन्द घोष, बरिन्द्र कुमार घोष, अविनाश भट्टाचार्य व भूपेन्द्र नाथ दत्त जैसे क्रान्तिकारी जुड़े थे। भारत में यूरोपियों की प्रथम राजनैतिक हत्या का उल्लेख सर्वप्रथम 1897 में मिलता है, जब 22 जून को पूना के चापेकर बन्धुओं ने प्लेग समिति के अध्यक्ष श्री रैण्ड और ले. एमस्र्ट को मार गिराया। यद्यपि चापेकर बन्धुओं को फांसी हो गई, पर 1905 के बाद ऐसी गतिविधियों में काफी बढ़ोत्तरी हुई। 30 अप्रैल 1908 को मुजफ्फरपुर (बिहार) के बदनाम जज किंग्सफोर्ड को खुदीराम बोस व प्रफुल्ल चाकी ने बम से मारने का असफल प्रयास किया पर उस समय गाड़ी में किंग्सफोर्ड नहीं अपितु श्रीमती केनेडी व उसकी बेटी बैठी थीं, जिनकी बम विस्फोट में मौत हो गई। गुलामी की बंजर छाती पर भारतीय युवकों की स्वतंत्र चेतना का यह प्रथम बम प्रयोग था। इस केस में 19 वर्षीय खुदीराम बोस को फाँसी हो गयी तथा प्रफुल्ल चाकी ने स्वयं को गोली मार ली। खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी के अप्रतिम बलिदान से प्रेरित होकर एक अन्य क्रान्तिवीर यतीन्द्र नाथ मुखर्जी, ने सरकारी नौकरी छोड़ दी और क्रान्तिकारियों के साथ जुड़ गये। बनारस में जन्मे शचीन्द्र नाथ ने 1908 में क्रान्तिकारियों के हाथ मजबूत करने के लिए ‘यंग मैंस एसोसिएशन’ संस्था का गठन किया, जिससे तमाम नवयुवक जुड़े। 1919 के जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड को ऊधमसिंह कभी नहीं भुला पाये और लन्दन के इण्डिया हाउस में 31 मार्च 1940 को एक विशाल सभा के दौरान इस हत्याकाण्ड के कर्ताधर्ता माइकल ओे डायर पर गोली दाग दी और वहाँ से भागने की बजाय सीना तानकर कहा कि – ‘‘माइकल ओ डायर को मैंने मारा है।’’ 

क्रान्तिकारी गतिविधियों की यह घटनायें सिर्फ भारत की भूमि तक ही सीमित नहीं रहीं बल्कि विदेशों में भी अपनी जड़ें फैला रही थीं। श्यामजी कृष्ण वर्मा ने लन्दन में 1905 में ‘भारत स्वशासन समिति’ का गठन किया तो लाल हरदयाल ने बर्लिन में ‘भारतीय स्वतंत्रता समिति’ का गठन किया। 1नवम्बर 1913 को अमरीका के सानफ्रांसिसको नगर में लाल हरदयाल द्वारा ‘गदर पार्टी’ का गठन किया गया, जिसने भारत में आजादी की खातिर तमाम अप्रवासियों को भर्ती किया। क्रान्ति की इस लहर पर वी.डी.सावरकर, मैडम शीकाजी कामा, अजीत सिंह इत्यादि ने विदेषों में घूम-घूम कर भारतीय स्वतंत्रता के पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश की। काबुल में राजा महेन्द्र प्रताप ने भारत की आजादी के लिए एक अस्थायी सरकार की स्थापना की।  

          प्रारम्भ में क्रान्तिकारी गतिविधियाँ व्यक्तिगत साहस व प्रदर्शन तक ही सीमित थीं पर 1924 के बाद क्रान्तिकारी संगठित होने लगे। ये व्यक्तिगत साहस की बजाय सरकारी धन अथवा शस्त्रागार को लूटकर अंग्रेजी हुकूमत के समक्ष चुनौती उत्पन्न करते थे। ये क्रान्तिकारी जहाँ अंग्रेजी हुकूमत को खत्म करना चाहते थे वहीं लोगों में राष्ट्रवाद की भावना भी पैदा किया। 1924 में समस्त क्रान्तिकारी दलों के ‘कानपुर सम्मेलन’ के फलस्वरूप 1928 में ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन’ का गठन किया गया। कालान्तर में इसमें भगतसिंह व सुखदेव की पहल एवं शिव वर्मा, विजय कुमार सिन्हा व सुरेन्द्र पाण्डे इत्यादि के अनुमोदन से ‘सोशलिस्ट’ शब्द जोड़कर ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन’ में परिवर्तित कर दिया गया। चन्द्रशेखर आजाद इसके पहले सेनापति बने। इसी दौर में रामप्रसाद बिस्मिल, राजगुरु, भगवतीचरण बोहरा, बटुकेश्वर दत्त, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह, अशफाक उल्ला खान, शचीन्द्र नाथ सान्याल जैसे क्रान्तिकारी भी तेजी से उभरकर सामने आये। ‘‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजु-ए-कातिल में है’’- पंक्तियाँ गुनगुनाने वाले रामप्रसाद बिस्मिल ने लोगों को जागृत करने हेतु ‘अमेरिका को स्वाधीनता कैसे मिली’ तथा ‘देशवासियों के नाम सन्देश’ नामक एक पर्चा छपवाया, परन्तु शीघ्र ही दोनों अंग्रेजी हुकूमत द्वारा जब्त कर लिये गये। रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों की पहली महत्वपूर्ण घटना ‘काकोरी काण्ड’ की योजना बनी। 9 अगस्त 1925 को सहारनपुर से लखनऊ की ओर जा रहे सरकारी खजाने को रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में काकोरी नामक स्टेषन पर ट्रेन से लूट लिया गया। क्रान्तिकारियों के हिसाब से यह एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिससे उनकी धन की समस्या काफी हद तक दूर हो गयी। इस केस में रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह व अशफाक उल्ला खान को 19 दिसम्बर 1927 को फाँसी तो शचीन्द्र नाथ को आजीवन कारावास की सजा हुई। अशफाक उल्ला खान सम्भवतः प्रथम भारतीय क्रान्तिकारी मुसलमान थे, जो कि आजादी के लिये फाँसी के तख्ते पर लटक गये। 1927 में साइमन कमीशन के विरुद्ध प्रदर्षन करने पर लाला लाजपत राय के ऊपर लाठी चार्ज व तत्पष्चात उनकी मौत को क्रान्तिकारियों ने राष्ट्रीय अपमान के रूप में लिया और उनके मासिक श्राद्ध पर लाठी चार्ज करने वाले लाहौर के सहायक पुलिस कप्तान साण्डर्स को 17 दिसम्बर 1928 को भगत सिंह, चन्द्रशेखर व राजगुरु ने खत्म कर दिया। अंग्रेजी हुकूमत इन क्रान्तिकारियों के पीछे दौड़ती रही पर वे तो आजादी का कफन बांधकर निकल चुके थे।                 

         भगत सिंह ने  बटुकेश्वर दत्त के साथ आजादी की गूँज सुनाने के लिए दिल्ली में केन्द्रीय विधान सभा भवन में 8 अप्रैल 1929 को खाली बेंचों पर बम फेंका और कहा कि-‘‘बधिरों को सुनाने के लिए अत्यधिक कोलाहल करना पड़ता है।’’ बम फेंक कर भगत सिंह भाग सकते थे पर ऐसा करने की बजाय उन्होंने गिरफ्तार होना उचित समझा। विधान सभा में बम मारने हेतु फाँसी नहीं दी जा सकती, अतः अंग्रेजी हुकूमत ने इस काण्ड को ‘साण्डर्स हत्याकाण्ड’ से जोड़ दिया एवं 23 मार्च 1931 को भगत सिंह सुखदेव व राजगुरु को फाँसी पर लटका दिया। चन्द्रशेखर आजाद ने इस बीच क्रान्तिकारी गतिविधियाँ जारी रखीं और 9 जून 1931 को जब इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में बैठे वे किसी का इन्तजार कर रहे थे तो मुखबिर की सूचना पर पुलिस ने उन्हें घेर लिया और फायरिंग आरम्भ कर दी। चूँकि चन्द्रशेखर आजाद ‘आजाद’ रहने की कसम उठा चुके थे सो अन्तिम गोली स्वयं को मारकर सदा के लिए शहीद हो गये। अप्रैल 1930 में पूर्वी बंगाल में चटगाँव के क्रान्तिकारियों ने सूर्यसेन के नेतृत्व में शस्त्रागार पर धावा बोलकर वन्देमातरम् का उद्घोष करते हुये चटगाँव की मुक्ति की घोषणा कर दी। कई दिनों तक चटगाँव क्रान्तिकारियों के कब्जे में रहा पर अन्ततः सूर्यसेन को विष्वासघात करके पकड़ लिया गया और 1933 में फाँसी दे दी गयी।  चटगाँव आन्दोलन के दौरान पहली बार युवा महिलाओं ने क्रान्तिकारी आन्दोलनों में स्वयं भाग लिया, जिसमें प्रीतिलता वाडेयर व कल्पना दत्त के नाम प्रमुख हैं। 

           सुभाष चन्द्र बोस ने द्वितीय विष्व युद्ध के दौरान क्रान्तिकारी गतिविधियों में सक्रियता से भाग लिया। उचित अवसर पाकर वे 1941 में अंग्रेजी हुकूमत को चकमा देकर भारत से बाहर निकल गये और तमाम राष्ट्राध्यक्षों से भारत की स्वाधीनता के सन्दर्भ में वार्ता किया। 2 जुलाई 1943 को सिंगापुर में सुभाष चन्द्र बोस ने ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया और 5 जुलाई 1943 को ‘भारतीय स्वतंत्रता लीग’ का अध्यक्ष व तदोपरान्त अक्टूबर 1943 में आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति का पद  सँभाला। ‘नेता जी’ के नाम से प्रसिद्ध सुभाष चन्द्र बोस ने आजाद भारत की स्थाई सरकार की घोषणा करते हुये उद्घोष किया कि- ‘‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा।’’ उन्होंने ‘जय हिन्द’ का नारा दिया। भारत छोड़ो आन्दोलन ने अंग्रेजों को देश छोड़ने के लिए मजबूर करने में अन्तिम कील ठोंकी। यह एक ऐसा वृहद आन्दोलन था जिसमें तीन पीढ़ियों मसलन, स्कूल-कालेज के विद्यार्थियों, विश्वविद्यालय के नौजवानों और अनुभवी राजनीतिज्ञों ने सामूहिक रूप से समवेत स्वर में आवाज उठायी और नेतृत्व किया। इस आन्दोलन का अंदाजा लार्ड लिनलिथगो द्वारा ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल को लिखे पत्र से लगाया जा सकता है -’’मैं यहाँ 1857 के विद्रोह के बाद बहुत गंभीर विद्रोह से जूझ रहा हूँ। इसकी गहनता और विस्तार को मैंने सैनिक सुरक्षा की दृष्टि से विश्व से अब तक छिपाया है।’’   

            राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान क्रान्तिकारी गतिविधियाँ अपने चरम पर रहीं और देष की युवा पीढ़ी को इस धारा ने काफी प्रभावित किया। यद्यपि कुछेक विचारकों ने क्रान्तिकारियों द्वारा अपनायी गयी हिंसक गतिविधियों को उचित नहीं ठहराया है पर यह भी सच्चाई है कि हिंसा और अहिंसा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। हिंसा व अहिंसा का कोई निरपेक्ष पैमाना नहीं हो सकता बल्कि यह  परिस्थितियों की गम्भीरता पर निर्भर करता है। साण्डर्स को खत्म करने के बाद एक पर्चे में लिखे शब्दों से क्रान्तिकारियों की भावनाओं को समझा जा सकता है-‘‘मनुष्य का रक्त बहाने के लिए हमें खेद है परन्तु क्रान्ति की बलिवेदी पर रक्त बहाना अनिवार्य हो जाता है। हमारा उद्देष्य आतंक फैलाना नहीं बल्कि ऐसी क्रान्ति से है जो मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का अन्त कर देगी।’’ इसमें कोई शक नहीं कि क्रान्तिकारी गतिविधियों में तमाम लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी और इतिहास के पन्नों में अमर हो गये। भारत की स्वतंत्रता में तमाम धाराओं ने समानान्तर रूप से अपनी भूमिका निभायी और उनमें क्रान्तिकारी आन्दोलनों व गतिविधियों का प्रमुख स्थान है- ‘‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।’’       

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