कविता की किसी पंक्ति में

विजयसिंह नाहटा

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार है। पता – बी-92, स्कीम 10बी, गोपालपुरा बाईपास, जयपुर

नहीं पाया जाऊंगा--
जीवन के किन्हीं जगमगाते उत्सवों की चैंधियाती रोशनी में
न रहूंगा जंगल के मौन में घुला हुआ: आदमकद त्रासदी-सा
गर रहूंगा तो: अदृश्य
पदचिन्हों की लिपि में गुमशुदा तहरीर-सा
खेत खलिहानों की एक विलुप्त भाषा में
हवा के संग-संग अस्फुट बजता रहूंगा
पेट की भूख के संगीत में उस सरगम की तरह
बजता रहूंगा: खामोश
पड़ा रहूंगा गर्द में ढंका
टूटा-टूटा, बिखरा-बिखरा
गोया, अगीत की तरह: अनिबद्ध
महज, आकस्मिक ही रहूंगा
अस्तित्व के जनपद में: अस्थिर प्रवासी
एक जींवत किंवदंती में प्रश्नाकुल-सा
गर--
कहीं रहूंगा शर्तिया, साबुत: कुछ बचा खुचा-सा
किसी ठौर: धरती के किसी अंचल में
नागरिकता का अनुज्ञा पत्र धारे
तो यहीं कहीं.....
रहूंगा...., कविता की किसी जर्जर पंक्ति में
अभ्युदय की तरह क्षितिज की ओर उठता हुआ
और, उठाये रहूंगा समूची पृथ्वी का भार।
शाम होते ही
(कवि मंगलेश डबराल के लिए)


‘शाम होते ही मुरझा जाते हैं दिन भर के फुल’
शाम होते ही कुछ यात्रा तय कर लेते धरती के नीचे अंकुर
शाम होते ही झर जाते कुछ पत्ते दुनिया के तमाम वृक्षों से
जिन्हें एक साथ झिंझाडने पर झरता रहता समय तलहटी में
शाम होते ही कुछ नये पत्ते हो जाते काबिज नश्वरता की डालियों पर
और कुछ कुछ भारी हो जाता अस्मिता का गट्ठर
शाम होते ही कुछ-कुछ और व्यतीत हो जाते हम मृत्यु की तरफ अधर झुकते हुए
शाम होते ही आधा वर्तमान गिरने को आतुर रहता निकट अतीत में
कि आधा वर्तमान डूब जाता भविष्य की आतुर अध्ाीर प्रतीक्षा में
शाम होते ही कुछ काम रह जाते आधे अधूरे लगभग विचाराधीन
शाम होते ही बच्चे की नींद में सहसा गिरती अज्ञात प्रदेशों से आती बहुत सारी अनियोजित गेंद
किसी अनिश्चित कल के आकाश में अनायास उछालेगा वह जारों से भविष्य के चमकते सपनों की तरह
शाम होते ही गोया एक परिणाम हो जाता घोषित जीवन के इम्तिहान का
कुछ कुछ उत्थान भरा कुछ कुछ अवसाद सना
कुछ कुछ आह्लाद लिए थोड़ा विषाद में डूबा-सा
शाम होती ही-
ईश्वर लिख देता दैनिक डायरी में एक तटस्थ अनुच्छेद
ज्यों यूं रहता उम्र के शिलालेख पर अंकित
शाम होते ही आवाज बदल जाती अलग-अलग शक्ल में
और जुड़ जाती ट्रेन के डिब्बों की तरह
शाम होते ही-
ज्यों शरद सुबह धुंध चीरकर आती एक ट्रेन दिख जाती स्मृति के किसी पुरातन स्टेशन पर
जिसके आधे डिब्बे भागते पीछे की ओर किसी अगम्य घाटी में
आधे आगे की ओर किसी अंतहीन सुरंग में
शाम होते ही-
कातर नयन ताकता घर देहरी औ‘ दरवाजों पर मंडराती नश्वरता
शाम होते ही-
पूरी कायनात पूरा कुनबा- ‘देखो सब किस तरह मरण की शरण में है जीवित’।


गर आ भी जाये ?


गर आ भी जाये मृत्यु
कदापि न आये कोहराम की तरह
सहसा वो आये लोरी की तरह।
आये जैसे आता है सावन के बाद भादों
बसंत के बाद पतझड़
आये जैसे आती है दिन के बाद रात
सुबह के बाद आती है शाम।
बहुत धीमें हौले से एक पदचाप की तरह
लयबद्ध बढता आये मृत्यु-रथ
अपवाद की तरह नहीं
वो आये रक्त में अपरम्पार प्रवाह की तरह
दाल मंे नमक की तरह घुली हुई, वो आये
तोपों की गगनभेदी सलामी से अछूती
अखबारों की सुर्खियों से बेहद बची हुई
वो आये अ-घटना की तरह
स्मृति पटल से ओझल
शोक सभाओं से नदारद......, विलापरहित
सोलह आने खरी-, ओज में दमकती, वो आये
--उत्सव की तरह।
जैसे आता है दिशाओं से एक खामोश संवाद
और बह जाता गोया काल की अंतहीन नदी में
न हतप्रभ करती अपनी आमद से
आये उन्मुक्त झोंके की तरह, यकायक।
भला क्यूं न आये मृत्यु--
बारिश औ तूफान भरी एक उदास रात्रि में
जैसे कि बदलती हैं घोंसला चिडियाएं
इस डाल से उस डाल
इस प्रांतर से उस प्रांतर 
बस कुछ कुछ आ जाये
--इसी तरह मृत्यु।
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